लोकगीत अवधी
सुशील
लोकसाहित्य जनता द्वारा सामूहिक रूप से रचा जाता है भारतीय संस्कृति में लोकगीतों की समृद्ध परम्परा है। लोकजीवन से जुड़ी यह परम्परा लोककण्ठों में रची-बसी और बिखरी हुई है। मिट्टी की सोंधी गंध का फैलाव और मनुष्य का प्रकृति से संवेदनात्मक जुड़ाव लोकगीतों में मुखर है। ये खुशी और गम की सहज अभिव्यक्ति है। जन्म से मृत्यु तक, जीवन के विभिन्न संस्कार, रीति-रिवाज, धार्मिक और सांस्कृतिक उत्सवों के प्रति आस्था, लोक-विश्वास, प्रकृति पूजा आदि अवधी लोकगीतों के प्रमुख विषय हैं। उत्तर प्रदेश के अवध इलाके में अवधी लोकगीत ज़्यादातर अवसर विशेष, ऋतु विशेष और कर्म विशेष से जुड़े हुए मिलते हैं। लोकगीत और साहित्य हमारे ‘आधुनिक जीवन की लय’ के साथ मेल खाता हो या न खाता हो पर संस्कृति की धारा को अविच्छिन बनाये रखने में इसकी बड़ी भूमिका होती है। लोकगीतों के माध्यम से सांस्कृतिक चेतना का विकास होता है और वह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांरित होती रहती है।
सत्तर फीसदी भारत गाँवों में बसता है। गाँवों का जिक्र आते ही मन में खुले नीले आसमान के विस्तार का दृश्य दौड़ने लगता है, जहाँ आज भी एक आवाज़ में पूरा गाँव इकट्ठा हो जाता है जहाँ खुशी और गम के मौकों पर गाँव सिकुड़ कर एक परिवार बन जाता है। तेज़ी से हो रहे ‘परिवर्तन-आधुनिकीकरण’ ने गाँव को गाँव से दूर करने का काम शुरू कर दिया है और अपनी संस्कृति शहरी चकाचौंध के सामने छोटी लगने लगी है। शहरीकरण का अतिरेक उपभोक्तावाद की ओर ले जा रहा है। उपभोक्ता संस्कृति सीधे मानवीय मूल्यों पर प्रहार कर रही है और कर रही है व्यक्ति को व्यक्ति से अलग भी। ऐसे दौर में लोकसाहित्य की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। आज के दौर में लोक धारा ही प्रतिरोध की धारा बन सकती है क्योंकि वह जनता के हर क्षण साथ चलने की अभिव्यक्ति है, और वैश्वीकरण-भूमंडलीकरण इसका निषेध करता है।
इस मायने में आज साझी विरासत के प्रतीकों, मूल्यों और विश्वासों को महफूज़ रखने की ही नहीं उन्हें आगे बढ़ाने की भी ज़रूरत है।