शीला दीक्षित का शहर
डॉ. खुर्शीद अनवर
महलों के ख्वाब सजाते हैं
और सड़कों और चौराहों पर
इनकी दुकान लगाते हैं
नारों में छत, रोटी, कपड़े
परचम बनकर लहराते हैं
औरत की हिफाजत को लेकर
अखबारों में और टीवी पर
लंबे भाषण, लंबे वायदे
करने को कतार लगाते हैं
और ठीक उसी दौरान यहां
किसी बस्ती में, किसी कोठी में
मजबूर जवानी लुटकर के
खामोशी से सो जाती है
यहां वहशी की बदकार नज़र
सोने के भाव में बिकती है
यहां दर्द हर एक चौराहे पर
सूली पर चढ़ाया जाता है
यहां दौड़ती-भागती कारों में
लैलाएं नोची जाती हैं
किसी हीर की दुनिया सड़कों पर
ऐलानिया मसली जाती हैं
चिंघाड़ती चींखती ये दुनिया
आहों को नहीं सुन पाती है
कोई दुखिया मां खामोशी से
आंसू पीकर रह जाती है
ये शहर खामोशां है अपना
दिल्ली तो है पर दिल ही नहीं
तारीख़ है जिसकी अज़मत की
तहज़ीब मगर छू भी न गई