माँ और धरती माँ
डॉ. खुर्शीद अनवर
इनसे इंसान की रग-रग पे लहू बहता है
यह जो जीवन का सफर चलता है सदियों से यहां
इन्हीं से सींचा है मैंने इसे कतरा-कतरा
इनमें सांसों की रवानी का तबस्सुम है छिपा
इनमें धड़कन की सदाओं का तराना पिनहा
एक ज़रा रोने की आवाज़ जो इन तक पहुंची
खुद से शीरीनी उतर आई, कि ममता छलकी
तुमको सैराब यह करते रहे सदियों-सदियों
धरती पे चांद सजाते रहे सदियों-सदियों
धरती का सीना इन्हीं सीनों से आबाद हुआ
कहकहे गूंजे तो इन सीनों का ही साज़ रहा
धरती का सीना इन्हीं सीनों का मुहताज रहा
गुल की बू, रंगे चमन इनसे ही शादाब रहा
लेकिन इन सीनो का बाज़ार सजाया तुमने
इनको रूस्वा किया, सूली पे चढ़ाया तुमने
दूध के कतरे लहू बन के टपकते देखे
वो जो नन्हा सा, फरिश्ता सा चिमटता था यहां
फिर से चिमटा तो अजब क़हर किया
उसकी रग-रग में मेरा खून जो दौड़ा था कभी
उसकी आंखों में उतर आया था उस लमहा वही
दांत, नाखुन जो निकल आये थे इस वहशी के
नोचते पाये गए कुदरत के चिरागों की रगें
गोश्त के लुथड़े की मानिंद बने अब यह चिराग
वहशी लेते रहे उस गोश्त के टुकड़े से हिसाब
सारा जो कर्ज़ था वह खूब उतारा, बच्चों
धरती मां का भी, चिरागों का, और शीरीनी का