उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ : भारत की साझी विरासत
पार्थ चटर्जी
शहनाई के इतने खूबसूरत इस्तेमाल और उसमें इतनी बारीकी पैदा कर पाना खाँ साहब के ही वश की बात हो सकती थी। उनके होंठों से छूकर शहनाई ‘बोलने’ लगती थी और संगीत में एक दिली बातचीत का सा भाव मालूम पड़ता था।
सत्तर साल पहले शहनाई को संगीत कार्यक्रमों में वाजिब जगह दिलवाने वाले उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ (1916-2006) ने पिछले दिनों 21 अगस्त को बनारस में आखिरी सांस ली। खाँ साहब थके और बूढ़े तो थे लेकिन अभी सोने की तैयारी में नहीं थे। कला और सौन्दर्य की दुनिया में नए प्रतिमान गढ़ने वाले बिस्मिल्ला खाँ काफी अकेले हो चुके थे और भौतिक दुनिया से अरसा पहले मुक्त हो चुके थे लेकिन इस दौरान उन्होंने अपने तकरीबन 70 आश्रित परिजनों की जरूरतों को पूरा करने में कभी कोई कसर नहीं उठा रखी।
खाँ साहब की ज़िंदगी और कला के बीच कोई फासला नहीं था। दोनों चीजें एक दूसरे में मानों विलीन हो चुकी थीं। 1937 में कलकत्ता में हुए अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में उन्होंने शहनाई की स्वर-लहरियों का ऐसा जादू बिखेरा था कि गुनी सुनने वाले भी दंग रह गए थे। उस वक्त उनकी उम्र महज़ 21 बरस थी। इसके बाद वे तकरीबन 50 साल तक शहनाई की दुनिया के सबसे करिश्माई फनकार बने रहे। कलकत्ते के अली हुसैन, वाराणसी के अनन्त लाल और पुरानी दिल्ली के जगदीश प्रसाद क़मर, इन सबने शहनाई बजाई और सारे ही इस फन के माहिर उस्ताद भी थे पर किसी के पास भी लय-ताल की वो तुर्शी और बारीकी न थी।
जब बिस्मिल्ला खाँ बजाते थे तो चाहे यमन जैसे बुलन्द राग में कई परतों की बंदिश हो या कोई साधारण सी लोकधुन हो, उनकी शहनाई सुनकर आम सुनने वालों की तो बात ही क्या, शौकीनों और तजुर्बेकारों का भी गला रुंध जाता था। उन्हें संगीत की ये बेमिसाल प्रतिभा व हुनर कहां से मिला, इस बारे में जानकार चाहे जो कहें पर खुद खाँ साहब अपनी इस कामयाबी और महारत के लिए अल्लाह और सरस्वती, दोनों को ही सीस नवाते थे।
एक नज़र से देखें तो संगीत उनके खून में था। शायद इसीलिए एक हद तक उनके लिए ये सब कुछ आसान भी था। उनके पुरखे संयुक्त प्रांत की एक भूतपूर्व रियासत के दरबारी संगीतकार थे। यह छोटी सी रियासत अब बिहार में पड़ती है। उनके चाचा अली बख़्श, जिन्हें लोग विलायतू कहा करते थे, वाराणसी के विश्वनाथ मंदिर से जुड़े थे और उन्होंने ही बिस्मिल्ला खाँ को मंदिर के गर्भगृह के भीतर शिव की मूर्ति के सामने और बाहर जनता के सामने शहनाई बजाने का हुनर सिखाया था। ये दोनों शख़्स साजिंदों के साथ मंदिर के मुहाने से सटे चबूतरे पर बैठे शहनाई बजाया करते थे - इस बात से अनजान कि वे ऐसे समाज में एक नई रीत गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं जो अभी भी वर्ग, जाति और मजहब की लकीरों से बंटा हुआ है।
सांस पर उनका नियंत्रण गजब का था। ये बात इसलिए और भी हैरतंगेज दिखाई देने लगती है कि खाँ साहब धूम्रपान के भारी शौकीन थे। तकरीबन सारी उम्र उन्होंने जमकर बीड़ियां फूंकी थीं। 73 साल की उम्र तक भी उनकी आवाज में वही जुम्बिश और समृद्धि बनी हुई थी और शायद ही कभी कोई तान जगह से इधर-उधर पड़ती होगी।
चंद नपे-तुले सुरों के जरिये पहले वो किसी राग के कोने-अंतरे और सिरों को उघाड़ते थे और फिर उसका मिजाज़ व आत्मा उभरती थी। खाँ साहब किसी खास राग में नई बंदिशें बनाने और उनको तराशने की सदियों से चली आ रही परंपरा के वारिस थे।
खाँ साहब गाने के भी बहुत शौकीन थे और उम्र की आठवीं दहाई के आखिरी सालों में भी बखूबी गा लेते थे। उन्हें ठुमरी, दादरा, चैती, बारामासा और खयाल की सैंकड़ो बंदिशें ज़बानी याद थीं।
खाँ साहब गहरे तौर पर धार्मिक और इंसानियत-परस्त व्यक्ति थे। उनके प्यार की कोई सीमा नहीं थी। उन्हें तो पूरी मानवता से लगाव था। ये उनकी इंसानियत और सहनशीलता का ही नतीजा था कि 40 साल पहले वे बनारस में हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान अविचलित खड़े रहे। उनका मानना था कि जो गलत है वो भी अपने आप सही रास्ते पर आ जाएगा और ज़िंदगी में अर्थ भरने के लिए सुरों की श्रेष्ठता कायम होकर रहेगी।
भारत रत्न सहित तमाम ईनाम-सम्मान उन्हें मिले। कलाकारों में एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी और पंडित रविशंकर के अलावा सिर्फ खाँ साहब ही थे जिन्हें भारत रत्न मिला था।
मेरे ज़हन में बिस्मिल्ला खाँ के संगीत की सबसे पुरानी और अविस्मरणीय स्मृति साठ के दशक से जुड़ी हुई है। दशक के आखिरी सालों में मैंने उनकी बजाये बागेश्वरी रात्रि राग की एलपी (लांग प्लेइंग) रिकॉर्डिंग सुनी थी। उस प्रस्तुति में उन्होंने बिछुड़ गए प्यार की बार-बार पीछा करने वाली स्मृति को निरर्थक अफसोस के भाव में नहीं बल्कि गहरे विवेक के स्तर पर साकार किया था। उस डिस्क को मैंने 35 साल पहले अपने दोस्त के घर पर सुना था, लेकिन उस अमर संगीत का असर व याद आज भी मेरे पास है। इसके अलावा तिलक कामोद, केदार, जैजेवंती, श्याम कल्याण, विहाग, रागेश्वरी और मलकान जैसे रागों की रिकॉर्डिंग्स अब तक मेरी यादों में बसी हैं। अहीर भैरव, तोड़ी, ललित, बृंदावनी सारंग, जौनपुरी, भीमपलासी जैसे सुबह-दोपहर वाले राग और बहार-मल्हार जैसे मौसमी राग... फेहरिस्त लंबी है।
बताते हैं कि बिस्मिल्ला खाँ ने तंत्रकारों की बाज की भी तालीम ली थी। तंत्रकार एक जटिल समय चक्र के आधार पर राग की संरचना में सघन संशोधन पर आश्रित रहते थे जिसमें केंद्रीय सुर बीच-बीच में उभरता था। खाँ साहब की शैली भी उनके अपने परिवेश में गायकों से काफी प्रभावित थी और विद्याधरी बाई, रसूलन बाई और उनकी बहन बतूलन बाई, जिन्हें लोग भुला चुके हैं, बड़ी मोटी बाई और सिद्धेश्वरी बाई जैसे अपने जमाने के महान ठुमरी गायकों की समृद्ध शैली को उन्होंने खूब अपनाया था।
ठुमरी के साथ सहज रिश्ता
बिस्मिल्ला खाँ मूलतः स्त्री-सुलभ ठुमरी के आंतरिक क्रियाविधान को समझ चुके थे और उसके सबसे चित्ताकर्षक व कठिन पहलुओं को उन्होंने अपने शहनाई वादन में समो लिया था। जब वे किसी राग की चढ़ती-गिरती तानों को संजोते थे तो सिर्फ कर्णप्रिय आवाजें नहीं पैदा कर रहे होते थे। यह सजावट से कहीं ज्यादा बात होती थी। इस क्रिया में वे विचार और एहसास के अनुभव की सीमाओं को नया विस्तार देते थे।
उन्होंने विजय भट्ट की सफल हिन्दी फिल्म गूंज उठी शहनाई में भी शहनाई बजाई थी। इस फिल्म के शीर्षक गीत ‘’मेरे सुर और तेरे गीत’’ में लता मंगेशकर के साथ उनकी प्रस्तुति को आवाज़ और बाजे का आदर्श मिलन माना जाता है। इसी तरह का परिपक्व संगम लैस्टर यंग के सैक्सोफोन और बिली हैलीडे के जैज़ गायन की रिकॉर्डिंग्स में दिखाई देता है। अमेरिका में 1930 और 40 के दशकों में इस श्रृंखला की बहुत सारी रिकॉर्डिंग्स तैयार की गई थीं। बिस्मिल्ला खाँ ने कुछ और फिल्मों के लिए भी शहनाई बजाई थी जिनमें सत्यजीत रे की जलसागर (1958) भी शामिल है। इस फिल्म का संगीत उस्ताद विलायत खाँ ने दिया था। हाल ही में उन्होंने आशुतोष गोवारीकर की फिल्म स्वदेश में भी अपनी शहनाई का जादू बिखेरा था।
उन्होंने विलायत खाँ के साथ सितार पर और प्रो. वी. जी. जोग के साथ वायलिन पर युगल प्रस्तुतियां दी थीं। इनके अलावा ओमकारनाथ ठाकुर से हिंदुस्तानी संगीत में वायलिन वादन का गहन प्रशिक्षण लेने वाले एन. राजम के साथ भी उनकी जुगलबंदी के रिकॉर्ड मौजूद हैं। सितार वादक शाहिद परवेज़ के साथ भी उन्होंने कई बार बजाया। ईएमआई इंडिया ने उनकी गायी हुई ठुमरियों की एक एलबम भी रिलीज़ की थी।
उनकी बेहतरीन रचनाओं के लिए उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा। बिस्मिल्ला खाँ इतने लम्बे समय तक टिके रहे इसकी मुख्य वजह ये थी कि माइक्रोफोन का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर होने लगा था लेकिन उनके संगीत की आभा उनकी अपनी उपलब्धि थी जो अंत तक उनके साथ रही। अब जबकि हिंदुस्तानी संगीत एक नाजुक मोड़ पर पहुंच गया है और जबकि खरीद-फरोख्त व रिकॉर्डिंग की दुनिया के लोग और सुनने वाले होश खो देने वाले संगीत से बेपरवाह होते जा रहे हैं, हमें इस बात के लिए आभारी होना चाहिए कि हमारे पास उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के उस अलौकिक संगीत का इतना बड़ा खज़ाना मौजूद है। उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ भारतीय संगीत में साझी विरासत के आदर्श प्रतिमान के रूप में याद किए जाएंगे।
साभार : फ्रंटलाइन से साभार
अनुवाद : योगेन्द्र दत्त