साझी विरासत की हिफाज़त का सवाल
आदियोग, आवाज़, लखनऊ
पिछले कुछेक दशकों में संस्कृति का सवाल राजनैतिक मोर्चे पर सर चढ़ कर बोल रहा है, संस्कृति की बहस बांह चढ़ाने के नाम होती जा रही है। पाठक जानते हैं कि इसके पीछे कौन सी ताकत और कौन से विचार हैं, उनका रास्ता किधर से होकर जाता है और उनका कुल मकसद क्या है। यह हमारे दौर की उलटबांसी है कि जो सिरे से असभ्य और असांस्कृतिक हैं, उन्होंने ही देश-दुनिया को सभ्यता और संस्कृति का पाठ पढ़ाने का ठेका ले रखा है। ईराक में अगर यह ठेकेदारी अमरीका-ब्रिटेन और उनके पिछलग्गू देशों के कब्ज़े में है तो अपने देश में यही कमान भगवा गिरोह के हाथ में है। ईराक से आतंक को खदेड़ देने और इराकियों को आज़ादी दिलाने के नाम पर विदेशी फौजें घुसी थीं, लेकिन इरादा तो इराक में अपनी वहशियत के झंडे गाड़ना और ईराकियों को गुलाम बनाना था। यह सिलसिला आज भी जारी है, आग और खून से लथपथ ईराक कराह रहा है, बर्बादी की राह पर है और ऊपर से जॉर्ज बुश अमरीकी राष्ट्रपति की गद्दी पर दोबारा काबिज़ हो चुके हैं। भगवा गिरोह इतना खुशकिस्मत नहीं रहा, उसकी कारगुज़ारियों की काली छाया पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजे पर खूब दिखी और जनादेश ने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया। इसका यह भी मतलब नहीं कि अगर अमरीका में जॉर्ज बुश हार जाते तो अमरीका बदल जाता। जॉन कैरी किस मामले में जॉर्ज बुश से कितना अलग हैं? कान इधर से पकड़ो या उधर से, क्या फर्क पड़ता है-पकड़ोगे तो आखिर कान ही। बुश-कैरी के बीच बस इतनी दूरी है। राहत की बात है कि थाली के गिने-चुने बैगनों को छोड़ दें तो अपने देश में भगवा गिरोह और बाकी दलों के बीच का फासला काफी हद तक साफ नजर आता है।
इस पर गर्व किया जाना चाहिए, लेकिन खतरों से बेपरवाह होकर नहीं। सत्ता से बाहर होने की खीज और बौखलाहट का इधर भाजपा और उसके संगी-साथियों ने आक्रामक इज़हार किया है। आज़ादी की जंग से जिनका कभी कोई नाता नहीं रहा, जिन्होंने विलायती प्रभुओं का दामन थामा और गद्दारी का ईनाम हासिल किया, उन्होंने तिरंगा यात्रा ही कर डाली। उन सावरकार के नाम पर हंगामा जोता गया, जिसकी ‘वीरता’ जेल की सलाखों के पीछे टिक नहीं सकी और जो विदेशी राज का गुणगान करने और आजादी की मांग से तौबा करने के वायदे पर ‘आजाद’ कर दिये गये थे। रामजन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद का मामला तो जैसे सदाबहार है और अब नये सिरे से पिटारी के बाहर है, फुंकार मार रहा है। बाबरी मस्ज़िद की शहादत से पहले और उसके बाद पूरे देश को, और इस नयी सदी में गुजरात को उग्र हिंदुत्व की वहशी प्रयोगशाला में तब्दील कर दिया गया। किसी खास समुदाय के खिलाफ राज्य प्रायोजित हिंसा की मिसाल कायम की गयी। बस्ती की बस्ती उजड़ गयी, आग के हवाले हो गयी। इस आग में मुसलमान भी भून दिये गये। हिंदुत्व के रक्षकों ने मुस्लिम औरतों को अपनी जवांमर्दी का मैदान बना दिया। नन्ही-नन्ही बच्चियों और बूढ़ी औरतों को भी नहीं बख्शा गया। दुकान-कारखानों से लेकर मस्जिदों तक पर अंधी नफरत का कहर टूटा। गौर करें कि गुजरात में मस्ज़िदों के साथ-साथ मजारें और दरगाहें भी हमले का निशाना बनीं। कहें कि पहले निशाने पर थे, वे प्रतीक जो जाति-धर्म के भेद से मुक्त हैं और आपसी मिलाप के ऐतिहासिक केंद्र हैं। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। यह बांसुरी अमन-चैन की है, मोहब्बत और इन्सानियत की है। यह आपसी मतभेदों को धीमा और फीका करती है। दूरियां घटाती और करीबी बढ़ाती है, सुख-दुख साझा करने का मौका और एक साथ खड़े होने का अहसास कराती है। लेकिन यह मीठी धुन भगवा गिरोह को आदतन रास नहीं आती। हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान का नारा यही गवाही पेश करता है। इसके सीधे निशाने पर हमारी सतरंगी संस्कृति और उसकी साझी विरासत है जो विभिन्न मतों के लोगों के बीच मजबूत पुल की भूमिका अदा करती रही है। इस धुन को मटियामेट कर देने की बेहूदा मुहिम इधर नये उफान पर है।
नई दिल्ली स्थित ‘इन्स्टीटयूट फॉर सोशल डेमोक्रेसी’ ने इस चिंता और चुनौती को अपना पहला एजेंडा बनाया है और सामाजिक क्षेत्र में उसे आम दिलचस्पी का विषय बनाने का बीड़ा उठाया है, इस समझ के साथ कि लोगों और समुदायों को जोड़ने वाले प्रतीकों, रूपों और पक्षों की अनदेखी या उससे दूरी आखिरकार विकास और बदलाव की प्रक्रियाओं को प्रभावी और निरंतर रूप दिये जाने में बड़ी रूकावट है। इस कड़ी में अगस्त 2004 में रांची के बाद नवम्बर में लखनऊ में उत्तर प्रदेश में सक्रिय कोई दो दर्जन सामाजिक संगठनों के साथ सात दिवसीय गंभीर चिंतन-मनन का शिविर आयोजित हुआ। शिविर के साझीदार इन जैसे सवालों से गुजरे कि संस्कृति से हमारा क्या मतलब है? साझी संस्कृति विरासत के क्या और कैसे रूप या पक्ष है? क्या हर संस्कृति बुनियादी तौर पर साझी होती है या कि कोई ऐसी संस्कृति भी होती है, जिसे गैर साझा कहा जा सकता है? साझा विरासत से इशारा क्या है? क्या साझी विरासत का हर कोना सुंदर और काबिले कुबूल है? साझी विरासत किस तरह समुदायों के बीच एका करती है और उसकी क्या जरूरत है? उस पर कैसे खतरे हैं और हमलावर चेहरे कौन हैं, किस भेस में हैं और उनके इरादे क्या हैं? साझी विरासत को कैसे बचाया जा सकता है? कैसे उसकी पद-प्रतिष्ठा की बहाली की जा सकती है? वगैरह-वगैरह।
शिविर में समझ बनी कि संस्कृति को सामाजिक व्यवहारों और तौर-तरीकों के उस समुच्चय की शक्ल में समझा जा सकता है जिसमें हमारा ज्ञान, मूल्य मान्यताएं, रीति-रिवाज, नैतिकता, कायदे-कानून, जीवन शैली के अलावा ऐसी सभी क्षमताएं और आदतें भी शामिल होती हैं जो हमें समाज का हिस्सा होने के नाते मिलती हैं। किसी खास समाज की संस्कृति और आदतें भी शामिल होती है, जो हमें समाज का हिस्सा होने के नाते मिलती हैं। किसी खास समाज की संस्कृति को समझने का बेहतर तरीका यह है कि उसकी जीवन शैली, सांस्कृतिक उत्पादों और नैतिक मूल्यों पर एक साथ नज़र डाली जाये। इन तीनों अवधरणाओं का समुच्चय ही संस्कृति है। कोई व्यक्ति इस पर तभी अमल कर सकता है, जब वह उस समाज का हिस्सा हो, अलग-थलग रह कर यह मुमकिन नहीं। इसलिए संस्कृति किसी की बपौती नहीं, बल्कि किसी समाज या समूह की परिघटना हुआ करती है। जब हम सांस्कृतिक विरासत की बात करते हैं तो आम तौर पर हम अतीत की संस्कृति के उन पहलुओं का जिक्र कर रहे होते हैं, जो हमारे पास या तो मौजूद हैं या हमारे लिए अहमियत रखते हैं। इसमें पहनावा, खानपान, रीति-रिवाज़, सामाजिक व्यवहार के विविध् पक्ष और रूप, लोक संस्कृति के विविध् आयाम जैसे लोक गीत, लोक नृत्य, लोक नाट्य, लोक चित्र, लोक-शिल्प, लोक आख्यान या कि सौन्दर्य शास्त्र से लेकर आदर्श, अच्छे-बुरे के मानक जैसी नीतिशास्त्रीय अवधरणाएं तक शामिल हैं। आगरा का ताजमहल, दिल्ली का कुतुब मीनार या कि लखनऊ की भूलभुइलयाँ हमारी साझी विरासत हैं, वैसे ही जैसे भाषा-बोली, कहावतें और प्रतीक। एक साथ भोजन करने की हमारी संस्कृति साझी विरासत है, इसकी अभिव्यक्ति लंगर-भंडारे से पंगत तक में देखी जा सकती है। बेटी, भात और जनवासा से लेकर साझी विरासत का विस्तार तीज-त्योहारों, खेल-खिलौनों, मेलों और सूपफी सन्तों की मजारों और दरगाहों तक में देखा जा सकता है। कितनी ही रामलीलाओं में अहम किरदार मुसलमान निभाते हैं और कितने ही हिंदू मोहर्रम में ताजिया उठाते हैं। दूर क्यों जायें, लखनऊ में अगर पाठकजी की मस्जिद बनी, तो खान साहब का शिवाला भी बना। साझी विरासत में आज़ाद, भगत सिंह और अशफाकउल्ला की साझी शहादत भी शामिल है लेकिन आज इस विरासत को दफन करने और शहीदों को उनकी जाति-धर्म के मुताबिक बांटने का घिनौना खेल जारी है। बामियान में बुद्ध की मूर्ति गिरती है तो पूरी दुनिया जैसे स्तब्ध् रह जाती है। इसलिए कि यह सिर्फ बुद्ध की मूर्ति का जमींदोज़ हो जाना ही नहीं था, बल्कि सैकड़ों साल पहले की अद्भुत रचनाशीलता और उसके पीछे के अचरज भरे साहस की जिंदा तस्वीर का धूल में मिल जाना था। कहते हैं कि कण-कण में राम व्याप्त हैं इसलिए दुख की अभिव्यक्ति से लेकर अभिवादन तक में राम हैं। लेकिन मंदिर वहीं बनायेंगे। ऊधमी और खतरनाक ज़िद देखिये कि राम-नाम की मिठास पर जय श्रीराम की तल्खी काबिज होती जा रही है। राम-नाम साझी विरासत है जबकि जयश्रीराम भगवा गिरोह का ताजा ब्रांड। राम की परंपरागत छवि में धनुष उनके कांधे पर बस लटक रहा है लेकिन जयश्रीराम की तस्वीर में धनुष की प्रत्यंचा हमेशा के लिए तान दी गई है- अल्पसंख्यकों के साथ ही दलितों और आदिवासियों के भी खिलाफ। देश की बड़ी आबादी गरीबी, भुखमरी और बीमारी की गिरफ्त में है। कदम-कदम पर लोगों के लोकतांत्रिक और मानव अधिकारों का हनन और अपहरण जारी है, कल्याणकारी योजनाओं और विकास का हाल बुरा है। दूसरी तरफ संस्कृति के अनपढ़ सिपहसालार हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्तान के उजड्ड और हमलावर नारे का तीर साध कर लोगों को बांटने और बुनियाद सवालों को पीछे कर देने की खतरनाक मुहिम पर है।
आज सभी लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावाद में विश्वास रखने वाली ताकतों की ज़िम्मेदारी है कि वे साझी विरासत के पक्ष में खड़े ही न हों बल्कि उसे महफूज़ रखने में भी अपनी पूरी ताकत लगायें।