भारत की लोकचित्र कलाएं
पवित्रा कपूर
लोकचित्रकलाएँ भारत की प्राचीनतम् और समृद्ध लोक कलाओं का एक अभिन्न अंग हैं। यह अन्य लोककलाओं की तरह हमें एक दूसरे से जोड़ती हैं। इनकी उत्पत्ति किसी शास्त्राीय कला की तरह मापदण्डों पर नहीं हुई है यह हमारे हृदय के भावों का दर्पण हैं। इन चित्राकलाओं को देखकर मन में जिज्ञासा के भाव उत्पन्न होते हैं जिज्ञासा उसके सामाजिक संदर्भों को समझने की, उसकी शैली और विविधता को जानने की, उसके रूप को सराहने की इत्यादि।
भारतीय लोक चित्र कलाओं में देवी देवता, ऋतुएं, जनजीवन से जुड़े दृश्य, लोक गाथाओं की नायक और नायिकाएं, वन्य जनजीवन इत्यादि को अनेक रूपों में प्रस्तुत किया जाता है। इन कला रूपों में प्रयोग में आने वाली वस्तुएं स्थानीय उपलब्धता के अनुसार प्रयोग की जाती है।
लोक चित्रकलाओं में महिलाओं की मुख्य भूमिका रही है। ये उत्तर प्रदेश की कोहबर, बिहार की मधुबनी, चौक पुरना और रंगोली जो अन्य नामों से भी जानी जाती है जैसे कि अल्पना, अलोपना, अइपन, भूमिशोभा, कोलम। इनमें से बहुत सी चित्रकलाएं दीवारों या ज़मीन पर मिट्टी का लेप कर उनमें रंग भरने से बनायी जाती हैं। यह कृतियां मन को मोह लेती हैं। महिलाओं के लिए यह उनके जीवन का अभिन्न अंग है। महिलाएं ही स्वस्थ साझी विरासत की वाहक हैं और शताब्दियों से अपनी भूमिका का बखूबी निर्वाह करती आयी हैं।
भारत में प्रचलित कुछ लोकचित्रा कलाओं का विवरण इस प्रकार हैं :
झोती : उड़ीसा के आदिवासियों और ग्रामीणों की लोककला है। इसमें ज़मीन और दीवार पर रेखाएं खींचकर सुरक्षा की कामना और बुराई को दूर करने का प्रयास किया जाता है।
कलमकारी : आंध्रप्रदेश के श्रीकलाहास्ती ज़िला कलमकारी के लिए प्रसिद्ध है। कलम से की जाने वाली कारीगरी को कलमकारी कहते है। इस लोककला में बांस से बनी। नुकीली कलम और सब्जियों द्वारा तैयार किए गये रंगों का प्रयोग किया जाता है। रंगों का प्रयोग प्रतीकात्मक रूप में किया जाता है। कलमकारी चित्र कहानी कहते हैं और इन को बनाने वाले कलाकारों में अधिकतर महिलाएं हैं।
तंजावौर और मैसूर चित्राकला : दक्षिण भारत में तंजावौर और मैसूर चित्रकला बहुत प्रचलित है। इस विधा में कृष्ण के बाल रूप और यशोदा की आकृतियों की प्रधानता है। इसमें अन्य हिंदू देवी-देवताओं को भी चित्रित किया जाता है। यह चित्राकारी मुख्यतया पूजाघर की दीवारों के लिए की जाती है। इन चित्रों को उभारा जाता है और इनमें चटक रंगों का प्रयोग होता है। रंगों के साथ सोने का पानी और नगों का प्रयोग इस चित्राकला को और भी सुंदर बना देता है। तंजावौर और मैसूर चित्रशैलियों के बनाने की प्रक्रिया में अनेक अंतर हैं। परंतु दोनों ही शैलियां मनमोहक हैं।
कुमाउँनी चित्र : उत्तरांचल की कुमाउँनी चित्रकला में जन्माष्टमी के समय कृष्ण लीलाओं का चित्रण किया जाता है। इस चित्रकला में पारम्परिक रंगों का प्रयोग कर कागज़ पर मनमोहक चित्रों की रचना की जाती है। इस प्रकार के चित्र अन्य त्योहारों और अवसरों के लिए भी बनाए जाते हैं।
पटना कलम : पटना कलम बिहार की एक और लोकप्रिय शैली है। 18वीं, शताब्दी के आस-पास इस क्षेत्र में इसका प्रचलन बढ़ा। इसलिए इस शैली में मुगल और यूरोपीय शैली का मिश्रण देखने को मिलता है। इस शैली के चित्राकार मुगल कलाकारों के वंशज थे जो मुगल काल के पतन के बाद पटना के आसपास आकर बस गए। यह शैली अपने रंगों और हाथ से बने कागज़ के प्रयोग के लिए प्रसिद्ध है। यह चित्रा अधिकतर बिहार के लोगों के जनजीवन को दर्शाते हैं।
पिछवाई चित्रकला : यह चित्रा मंदिरों के गर्भगृह को सजाने के काम में लाए जाते हैं। इन चित्रों का प्रयोग देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के पीछे लगाने के लिए होता है। इस चित्रकला का मुख्य केंद्र राजस्थान का नाथद्वारा मंदिर है। यह चित्र कपड़े पर पारंपरिक रंगों का प्रयोग कर बनाए जाते हैं। यह त्योहार के रंग, विषय और भाव की अभिव्यक्ति करते हैं।
फड़ चित्रकला : फड़ चित्रकला कपड़े पर होती है यह भी राजस्थान की लोकप्रिय लोकलाओं में से एक है। इस प्रकार के चित्र भीलवाड़ा क्षेत्रा में अधिक पाये जाते हैं। यह चित्रा ग्राम देवी, देवताओं, नायकों की कथाएँ दर्शाते हैं। इन चित्रों को लेकर लोक गायक गाँव-गाँव घूमते हैं और इन कथाओं का बखान करते हैं।
उष्ट कला : राजस्थान के बीकानेर में ऊँटों की खाल पर नक्काशी और चित्र बनाने की एक कला है। यह ईरान से मुगल काल में यहाँ आई और बीकानेर में प्रचलित हो गई जो अब भारतीय संस्कृति का हिस्सा हो गई है।
वर्ली चित्रकला : वर्ली चित्राकला महाराष्ट्र की लोकप्रिय चित्रकलाओं में से है। रेखाओं और त्रिकोणों का प्रयोग कर इस चित्रकला में जीवन चक्र को दिखाया गया है। इन चित्रों को बनाने के लिए सफेद रंग का प्रयोग होता है। यह रंग चावल के चूरे से बनाते हैं। इन चित्रों को आदिवासी अपने घर की बाहरी दीवारों पर चित्रित करते हैं।
तनखा चित्रकला : यह चित्राकला नेपाल और सिक्किम के पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक की जाती है। तनखा चित्रकला के चित्रकार अधिकतर बौद्धधर्म के अनुयायी होते हैं। यह चित्र बुद्ध के जीवन के विभिन्न पक्षों और जातक कथाओं के चित्रों के साथ, देवी-देवताओं, दैत्यों आदि की कथाएँ भी चित्रित करते हैं।
ऊपर लिखे सभी लोकचित्र कला परम्पराओं में क्षेत्रीय विविधता के बावजूद भी जनजीवन और देवी-देवताओं की जीवनी का चित्रण पाया जाता है और इस तरह ये साझी विरासत का जीवन्त प्रतीक हैं। हमें इन प्रतीकों को महफूज रखना है।