हिंदुत्व के अहमक
सुभाष गाताडे
‘आतंकवादी संगठन मुल्क में तनाव पैदा करते हैं। भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बजरंग दल, हुरियत कॉन्फ्रेंस और लश्कर ए तोइबा जैसी साम्प्रदायिक पार्टियां हिंसा को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार हैं ....जिसकी वजह से मुल्क के विशेषकर कश्मीर के - सैंकड़ों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है।
‘आतंकवादी संगठनों का अस्तित्व’, उड़ीसा के द्वितीय वर्ष के छात्रों के लिए ‘भारतीय राजनीति’पर प्रस्तावित पाठयपुस्तक से (इण्डियन एक्स्प्रेस, 2 फरवरी 2008)
पाठयपुस्तक में छपे किसी लेख को पढ़ने में कितना वक्त लगता है। कुछ मिनट ...मान लें कि एकाध घण्टा। और उसे समझ में आने में कितना वक्त लगता है... वैसे आमजनों की बात करें तो वे शायद थोड़े में ही समझ सकते हैं, लेकिन अगर विशेष जन हों तो शायद 4-5 साल से भी अधिक वक्त़ लग सकता है।
अगर यह बात अविश्वसनीय लगती है तो आप की मर्जी, अलबत्ता सूबा उड़ीसा में पिछले दिनों यही वाकया सामने आया और वर्ष 2003 से उड़ीसा भर के शिक्षा संस्थानों में पढ़ायी जा रही एक किताब अचानक विवादास्पद हो उठी। बताया जाता है कि जनवरी के आखिर में भुवनेश्वर से बमुश्किल 60 किलोमीटर दूर सालेपुर के एक कार्यकर्ता को यह बात समझ में आयी और उसने प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर की। बजरंग दल, विहिप जैसी हिन्दुत्व की अतिवादी जमातों ने जगह-जगह प्रदर्शन शुरू किए, किताब के लेखक को गिरफ्तार करने की मांग की, किताब की प्रतियां जलायी।
लेकिन इस पूरे प्रसंग में हिन्दुत्व ब्रिगेड की सभी जमातों ने अपने आप को औपचारिक हंगामे तक ही सीमित रखा। इसकी वजह यह थी कि उड़ीसा में पिछले सात-आठ साल से बिजू जनता दल के साथ सहयोगी के तौर पर खुद भाजपा भी शामिल है। और उसी के कोटे से शिक्षा मंत्री बना है, बचपन से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में गए समीर डे इस पद पर विराजमान है।
निश्चित ही यह समूचा प्रसंग उड़ीसा में विगत कई दशकों से सक्रिय हिन्दुत्व के कार्यकर्ताओं की बौद्धिक क्षमता पर भी नए प्रश्न चिन्ह खड़े करता है जो उन्हें इस हिस्से पर गौर करने में पांच साल लगे।
फिलवक्त चूंकि यह मामला बड़ा बना हुआ है इसलिए अपने आप को असुविधाजनक स्थिति में पा रहे उड़ीसा के मुख्यमंत्री जनाब नवीन पटनायक ने आनन-फानन में मॉनीटरिंग कमेटी बना कर उसे यह जिम्मा सौंपा है कि वह तमाम पाठयपुस्तकों की नये सिरे से पड़ताल करे। अपनी झेंप मिटाने में मुब्तिला समीर डे ने यह भी चेतावनी दी है कि हम कानूनी सलाहकारों से बात कर रहे हैं कि इस मसले पर क्या किया जा सकता है। उम्मीद यही की जा रही है कि मामले को रफा-दफा कर दिया जाएगा और बात आई-गई हो जाएगी।
बात जो भी हो लेखक को इस मामले में दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि उन्होंने अपनी पाण्डुलिपि शिक्षा मंत्रालय को सौंपी होगी, जिस पर संघ के स्वयंसेवक समीर डे के मातहत काम कर रहे अधिकारियों ने इस पर लम्बी-चौड़ी टिप्पणी भेजी होगी और फिर किताब प्रकाशन के लिए निर्देश जारी हो गए होंगे।
लेकिन क्या यह पहला मौका है जब संघ-भाजपा के कर्णधारों को अपनी ही लिखी चीजें वापस लेनी पड़ रही है।
भाजपा के पचीस साल पूरे होने पर आयोजित भव्य समारोह के दौरान इनके द्वारा प्रकाशित किये गये 16 खण्ड की रचनाओं के बहाने उनकी इसी किस्म की बदहवासी सामने आयी थी। जैसा कि एक राष्ट्रीय अख़बार ‘इण्डियन एक्स्प्रेस’ (9 मई 2006) ने उन दिनों रिपोर्ट लिखी थी: ‘भाजपा के पचीस साल पूरे होने पर आयोजित मुम्बई के समारोह में जारी किये गये सोलह खण्डों में से एक खण्ड का चार महीनों बाद वापस लिये जाने को लेकर रहस्य गहराता ही जा रहा है। यह श्रृंखला, जिसे वरिष्ठ भाजपा नेता जे. पी. माथुर की निगरानी में इतिहासकार माखनलाल ने लिखा था, उसकी प्रस्तावना विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने लिखी थी।’
जहां प्रश्नांकित खण्ड ‘आरएसएस और भारतीय जनसंघ की स्थापना का इतिहास’ को वापिस लिये जाने का मामला मुद्दा-ए-बहस बना था, वहीं यह भी कम दिलचस्प नहीं था कि आज की तारीख तक भाजपा की ओर से इसके बारे में कोई ‘आधिकारिक’ स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है। संघ के पूर्व प्रवक्ता राम माधव की बातों से अन्दाज़ा लगाया जा सकता था कि माखनलाल द्वारा लिखे गये इस खण्ड में संघ और भारतीय जनसंघ की स्थापना को लेकर जो टिप्पणियां की गयी थी, वह ‘परिवार के मुखियाओं’ को नागवार गुजरी थीं। वही माखनलाल, जिन्हें पूर्व मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने इतिहास की उन किताबों को ‘सुधारने’ का जिम्मा सौंपा था, जिन्हें रोमिला थापर, इरफान हबीब, के. एन. पणिक्कर जैसे विश्वविख्यात इतिहासकारों ने तैयार किया था। अपने नाम पर किसी गम्भीर शोध के न होने के बावजूद यह गुरूतर जिम्मेदारी उन्हें इसी वजह से मिली कि वह संघ के विचारों के करीबी माने गये थे।
ऐसा क्या आपत्तिजनक लिखा गया था इन टिप्पणियों में! दरअसल इसमें यही लिखा गया था कि इनकी स्थापना मुस्लिमविरोधी ताकतों के रूप में की गयी थी।
संघ के उद्गम में निहित मुस्लिम विरोध के अलावा संघ के आकाओं को किताब के उन सन्दर्भों से भी आपत्ति हुई बतायी गयी थी, जो एक अन्य अख़बार के मुताबिक (द टेलिग्राफ, मई 10, 2006) ‘जिसमें ऐसे सन्दर्भ शामिल हैं जो संघ को भी कुछ ज्यादा ही मुस्लिम विरोधी जान पड़ते हैं। (Contains references that are too anti-muslim even for the RSS) महात्मा गांधी को भी ‘मुस्लिम तुष्टीकरण का जनक बताया जाना’ संघ के लोगों को नागवार गुजरा है। यह तो सभी के लिए स्पष्ट है कि महात्मा गांधी की हत्या के लिए ‘हिन्दुत्व’ का जो फलसफा जिम्मेदार रहा है, उसको मानने वाले इन दिनों महात्मा गांधी को अपने आप में समाहित करने की कवायद में जुटे हैं। यह अकारण नहीं कि संघ की शाखाओं के प्रातः स्मरणीयों में महात्मा गांधी का नाम भी शामिल किया गया है।
वैसे चाहे उड़ीसा के पाठय पुस्तक वापसी का मामला हो या भाजपा सम्मेलन के अवसर पर जारी एक खण्ड को वापस करने का मामला हो, किताब वापसी के ये प्रसंग उस मामले में छोटे दिखते हैं जब हम संघ के इतिहास पर गौर करते हैं, खासकर संघ के द्वितीय सुप्रीमो द्वारा रचित एक किताब की बात पर लौटते हैं।
संघ के विकास में जिन सैद्धान्तिक अवदानों के लिये गोलवलकर को याद किया जाता है, उसमें 1938 में ही सामने आयी उनकी किताब ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ का अहम स्थान है। इस किताब में उनके उस समय के चिन्तन की झलक साफ दिखती है, जहां वे हिटलर द्वारा अंजाम दिये जा रहे यहुदियों के नस्लीय शुद्धिकरण की हिमायत करते हैं और भारत में आयी ‘विदेशी नस्लों’ के हिन्दू नस्ल में समाहित किये जाने की पुरजोर वकालत करते हैं। इस किताब में लिखे गये उनके विचार उनके अनुयायियों को भी आज इतने विवादास्पद जान पड़ते हैं कि उन्होंने इससे दूरी बनाये रखने में ही भलाई समझी है। संघ के बौद्धिकांे में तथा उनके प्रकाशनों में भी यही बात इन दिनों कही जाती है कि यह किताब दरअसल गोलवलकर गुरूजी ने लिखी नहीं है बल्कि वह बाबाराव सावरकर की किताब ‘राष्ट्र मीमांसा’ का अनुवाद मात्र है।
अब यह जुदा बात है कि 22 मार्च 1939 को ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ को लिखी अपनी प्रस्तावना में गोलवलकर इस बात को खुद स्पष्ट करते हैं कि प्रस्तुत किताब के लेखन में ‘राष्ट्र मीमांसा’ मेरे लिये एक प्रेरणास्रोत रही है। मशहूर अमेरिकी विद्वान जीन ए करन जिन्होंने पचास के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में ‘मिलिटेण्ट हिन्दूइज्म इन इण्डियन पॉलिटिक्स : ए स्टडी ऑफ द आर एस एस’ जो किताब प्रकाशित की तथा जिसमें वे संघ के प्रयोग को बेहद सहानुभूति के साथ देखते हैं, वे भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि गोलवलकर ने 77 पेज की यह किताब तब लिखी जब वे सरकार्यवाहक बने। वे इस किताब को संघ की बाईबिल भी कहते हैं। इतना ही नहीं संघ के अग्रणी नेता राजेन्द्र सिंह और भाऊराव देवरस ने 1978 में इस किताब के बारे में एक आधिकारिक वक्तव्य भी दिया था। सरकार के सामने पेश किये अपने आवेदन मंे वे लिखते हैं ‘अनादि काल से ऐतिहासिक तौर पर भारत एक हिन्दू राष्ट्र रहा है इस विचार को वैज्ञानिक आधार प्रदान करने के लिये श्री माधव सदाशिव गोलवलकर जी ने ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ नाम से एक किताब लिखी थी।’