एक निर्दोष व्यक्ति को आतंकवादी के रूप में उत्कीर्ण करने की कहानी एवं उसके कार्यशीलता पर प्रश्न चिह्न?
सुभाष गाताडे
न्यायाधीश—मेरे मेज पर पड़े कागज के अनुसार यह मुख्तार नहीं है। तो इसका असली नाम क्या है?
अधिकारी—यह वस्तुतः आफताब आलम अंसारी है।
न्यायाधीश—इसका तात्पर्य यह है कि आपने गलत व्यक्ति को गिरफ्तार किया है। कैसे यह अक्षम्य त्रुटि हो गई?
(अधिकारी चुप रहता है।)
न्यायाधीश—यह न तो मुख्तार है और न ही राजू, तो आपने निवेदन पत्र में स्पष्ट रूप से यह क्यों नहीं बताया? क्या आपने लिखा है? कृपया रेखांकित करें और इसे मुझे दिखाएं?
(अधिकारी निवेदन पत्र को देखने लगा और उलझ गया।)
न्यायाधीश—मैं यह निवेदन पत्र स्वीकार नहीं कर रहा हूं। कृपया जाइये और नया बनाकर लाइये।
अन्ततः कलकत्ता में एक विद्युत कम्पनी में कार्य करने वाला विद्युत मिस्त्री आफताब आलम अंसारी स्वतंत्र कर दिया जाता है। और ‘आतंकवादी‘ के रूप में उसकी अग्नि परीक्षा का दौर समाप्त होता है। हाल ही में वो बंगाल के मुख्यमंत्री से मिलकर यह सब बतलाता है और अपनी मां के गिरते स्वास्थ्य के संदर्भ में सहयोग मांगता है। यह अब इतिहास के गर्त में है कि कैसे उसे नवम्बर में उत्तर प्रदेश में हुए विस्फोट के लिये विस्फोटक ले जाने के आरोप में बंगाल पुलिस की सहायता से कलकत्ता के बरा नगर में 27 नवम्बर को गिरफ्तार किया गया था।
अब यह पता चलता है कि उत्तर प्रदेश के निषेध कार्य बल ने आफताब पर आरोप लगाने के लिये राज्य के न्यायालयों में हुए विस्फोट के संदर्भ में गिरफ्तार दो आतंकवादियों—मोहम्मद खालिद एवं तारिक काज़मी के इस कथन का सहारा लिया कि इस अपराध का सरगना अपने आप को आफताब के साथ-साथ मुख्तार, राजू और बांग्लादेशी भी कहता है। हालांकि उपरोक्त दोनों ने किसी मध्य या अंतिम नाम की चर्चा नहीं की थी।
इसके बावजूद कि आफताब अब स्वतंत्र है, उसकी मां आयशा बेगम को अन्य चिंतायें सता रहीं हैं। उन्हें लग रहा है कि क्या वे लोग अब सामान्य जीवन बिता पाएंगी और क्या वो कभी उपरोक्त घटना तथा आफताब के जेल की संक्षिप्त यात्रा की घटना की छाया से निकल पाएंगी।
अब यह स्पष्ट है कि आफताब की गिरफ्तारी उत्तर प्रदेश विशेष कार्यबल की अति उत्साही कदम का प्रतिफल है जिसमें उसके द्वारा गलत पहचान इस कारण हुई क्योंकि वह भी सरगना की तरह गोरखपुर का ही रहने वाला था और उसके नाम के मध्य में भी ‘मुख्तार’ उपनाम लगा हुआ है। परन्तु अब जब देश के एक निर्दोष नागरिक आफताब को रिहा कर दिया गया है, क्या यह कहना उचित होगा कि इस प्रकार की त्रासदी फिर दोहराई नहीं जायेगी। और पृथ्वी के इस भाग अर्थात् भारत में इस प्रकार की कोई दुःखद घटना की पुनरावृत्ति नहीं होगी। परंतु भारतीय पुलिस के पहले इतिहास और सत्ता की कट्टरता तथा पक्षपातपूर्ण रवैये को देखते हुए इस प्रकार की कोई उद्घोषणा किया जाना अनुचित होगा।
वस्तुतः जिस दिन आफताब के जेल से स्वतंत्रता का समाचार आया उसी दिन महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने ख्वाजा यूनुस मामले में महाराष्ट्र पुलिस के पक्षपातपूर्ण रवैये के लिये फटकार लगाई। अब यह है कि खाड़ी से कार्य करके लौटे सॉफ्टवेयर अभियंता ख्वाजा यूनुस को पुलिस ने 27 दिसम्बर 2002 को गिरफ्तार करके घाटकोपर विस्फोट मामले में आतंकवाद गतिविधि निरोधक कानून के अंतर्गत सजा देने का फैसला किया। 3 जनवरी 2003 को यूनुस को मृत पाया गया और पुलिस ने यह दावा किया कि वह फरार हो गया था जबकि वह गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी जिससे उसे औरंगाबाद ले जाया जा रहा था। बाद में यह सामने आया कि कुछ पुलिस अधिकारियों द्वारा की गई प्रताड़ना के कारण उसकी मौत हुई। हिरासत में हुई मौत के बारे में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा किये गए लगातार विरोध एवं यूनुस की मां आयशा बेगम द्वारा न्याय के लिये किये गए संघर्ष के उपरांत दोषी पुलिस वालों के विरुद्ध एफ.आइ.आर. दायर की गई। इस मामलें में महाराष्ट्र सरकार द्वारा अभी भी टालमटोल की प्रक्रिया जारी है। उच्च न्यायालय का प्रश्न साधारण था ‘हिरासत में हुई मौत के मामले में कथित रूप से संलिप्तता के संदर्भ में प्रारंभिक रूप से सी.आइ.डी. द्वारा नामित दस पुलिस अधिकारियों को क्यों छोड़ दिया गया?
उपरोक्त घटनाओं की पृष्ठभूमि में यह कहा जा सकता है कि चाहे यह मुद्दा आफताब का हो, या ख्वाजा यूनुस का अथवा मोहम्मद कम़र या इरशाद अली का, यह धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगा है कि निर्दोषों पर आरोप लगाना और उन्हें आतंकवादी के रूप में उत्कीर्ण करना, देश के कानून के रखवालों में नवीनतम प्रतिमान के रूप में प्रस्तुत किये जा रहे हैं। अतः जो भी भारत की परिस्थिति से अवगत है यह आसानी से देख सकते हैं कि विरोध करने एवं कारागार में प्रतिरोध करने से संबंधित कानूनों का दुरुपयोग जारी है। 9/11 के उपरांत सम्पूर्ण प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है। यह प्रत्येक व्यक्ति के लिये देखने का विषय है कि मुस्लिम एक समुदाय के रूप में अपराधीकरण एवं आतंकवादीकरण के लक्ष्य के रूप में दिखाये जाने लगे हैं। स्पष्ट रूप से देखा जाए तो इन घटनाओं के बाद यह अंतर स्थापित करना आसान नहीं है कि लोग ‘नियोजित सांप्रदायिक प्रकार’ (उदाहरणस्वरूप भा.ज.पा. या शिवसेना) के बल द्वारा शासित होते हैं अथवा कांग्रेस जैसे ‘तार्किक सांप्रदायिकों’ द्वारा।
इस संदर्भ में मुहम्मद अफरोज को विस्मृत किया जाना आसान नहीं होगा, जिनको 9/11 के उपरांत मुम्बई पुलिस द्वारा एक आतंकवादी आक्रमण को नियोजित करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। मीडिया को यह बताया गया था कि वह एक खतरनाक आतंकवादी है जो ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमर्स एवं ऑस्ट्रेलिया में एक हवाई जहाज टकराना चाहता है।
मुम्बई पुलिस का एक विशेष दल इन देशों में विशेष रूप से भेजा गया परन्तु किसी भी प्रकार का प्रमाण नहीं जुटा पाए।
अन्ततः सम्पूर्ण आरोप एक बड़े पैमाने पर गढ़ा हुआ माना गया। इस समय महाराष्ट्र धर्म निरपेक्ष मोर्चे द्वारा शासित था जिसमें कांग्रेस एवं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी शामिल थे। पांच वर्ष पूर्व जम्मू के रघुनाथ मंदिर में विस्फोट मामले में गिरफ्तार तथाकथित खतरनाक आतंकवादियों को भी इसी प्रकार की अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा। अन्ततः न्यायालय ने सभी आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया एवं पुलिस को यह सलाह दी कि इस प्रकार के संवेदनशील मुद्दों में अपने मस्तिष्क का प्रयोग करें। इन निर्दोष व्यक्तियों को लम्बे समय तक उन आरोपों के लिये जेल में रहना पड़ा जिनमें उनका कोई योगदान नहीं था।
यह ज्ञातव्य है कि इस प्रकार की बड़ी त्रुटियों के बाद भी शासक इससे कभी भी महत्वपूर्ण सीख नहीं लेते हैं जिससे इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृति ना हो। इसके विपरीत इस प्रकार के सभी मामलों के ‘व्यक्तिगतिकरण’ करने के प्रयास किये जाते रहे हैं और सामाजिक तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों को कलंकीकृत एवं अपमानित करने की स्थापित कार्यप्रणाली अनवरत रूप से जारी है। अब पानी सिर से ऊपर आ गया है और यह आवश्यक है कि इस मुद्दे को उसी प्रकार सुलझाया जाये जैसा कि इसी प्रकार के एक मुद्दे को कनाडा सरकार ने सुलझाया।
एक युवा कनाडियन-सीरियाई सॉफ्टवेयर इंजीनियर माहेल अरार को 2002 में न्यूयार्क में तात्कालिक पड़ाव के दौरान सी.आइ.ए. ने बंदी बनाकर गुप्त रूप से सीरिया भेज दिया। उसे वहां एक कब्रनुमा बंदीगृह में रखकर बार-बार जानकारी प्राप्त करने के लिये प्रताड़ित किया गया जो वह नहीं जानता था। अन्ततः डेढ़ वर्ष के उपरांत उसे बिना किसी आरोप लगाए छोड़ दिया गया। इस घटना से यह सिद्ध होता है, कि माहेल अरार 9/11 के तुरंत बाद बुश-ब्लेयर जैसों द्वारा प्रारूपित इस्लाममय (इस्लामोफोबिया) का एक शिकार बना।
गत वर्ष कनाडा के प्रधानमंत्री स्टीफर हार्पर ने माहेल पर गुजरी अग्नि परीक्षा एवं इसमें कनाडा अधिकारियों की संदेहास्पद भूमिका के लिये खुलेआम माफी मांगी। कनाडा सरकार ने उसे क्षतिपूर्ति के रूप में 90 लाख डालर प्रदान किये। मीडिया की उपस्थिति में हार्पर ने कहा, ‘आप लोगों द्वारा 2002 एवं 2003 के दौरान कठिन दौर में दी गयी अग्नि परीक्षा और इसमें कनाडा के अधिकारियों की जो भी भूमिका रही हो, उसके लिये मैं कनाडा सरकार की ओर से आप, मोनिया माजिफ (अरार की पत्नी) और आपके परिवार से क्षमा प्रार्थी हूं।’
क्या कोई इस पर ध्यान दे रहा है?