Readings - Hindi

संस्कृति

बस्तर के आदिवासियों की जीवन शैली

सुमन कुरेटी, शिवरानी गोस्वामी, सीता ठाकुर

आदिम जनजातियों के लिए विश्व में प्रसिद्ध बस्तर तीन ज़िलों का सम्भाग है। ये ज़िले हैं - उत्तर बस्तर (कांकेर) दक्षिण बस्तर  (दंतेवाड़ा) तथा बस्तर (जगदलपुर) लगभग पांच हजार आबादी ग्रामों वाला यह दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र वनों तथा खनिजों से सम्पन्न है। उच्च समभूमि तथा सघन वनों के मध्य, नदी-नालों के संगीत के बीच, यहां के भोले-भाले आदिवासी लोग प्रकृति की गोद में रहते है। इनकी प्रमुख जातियां हैं, गोण्ड, मुरिया, माड़िया, दोरला, भतरा, परजा, हल्बा आदि। ये लोग जल-जंगल-ज़मीन को माता-पिता की तरह मानते हैं। जंगल से ये लोग तेंदू, महुवा, चिरोंजी, आंवला, हर्रा, बहेड़ा, इमली, जामुन, लाख, धूप, भेलवा, बेल, नीम, टोरा, गोंद, साल-बीज आदि संग्रह कर उन्हें बेचकर अपना जीवन यापन करते हैं। खेती एक फसली होती है, जिसमें धान, कोदो, कुटकी, कोसरा, मूंग, बाजरा, ज्वार, अलसी, तिल, सरसों आदि प्रमुख हैं। कम मात्रा में गेहूं, चना, उड़द, अरहर, तिवरा, मूंगफली, गन्ना, सूरजमुखी आदि की भी फसल ली जाती है।

देवी, देव, तीज त्यौहार: चैतराई, आमाखानी, अकती, बीज खुटनी, हरियाली, इतवारी, नयाखाई आदि बस्तर के आदिवासियों के मुख्य त्यौहार हैं। आदिवासी समुदाय एकजुट होकर बूढ़ादेव, ठाकुर दाई, रानीमाता, शीतला, रावदेवता, भैंसासुर, मावली, अगारमोती, डोंगर, बगरूम आदि देवी देवताओं को पान फूल, नारियल, चावल, शराब, मुर्गा, बकरा, भेड़, गाय, भैंस, आदि देकर अपने-अपने गांव-परिवार की खुशहाली के लिए मन्नत मांगते है।

कुछ अनोखे रीति रिवाज़: आज भी अधिकतर आदिवासी अपने खेतों के निकट ही घर बनाते हैं। यदि उस घर में किसी की मृत्यु हो जाय तो वहां से हटकर अलग मकान या झोपड़ी बनाने की प्रथा भी अधिकतर आदिवासियों में प्रचलित है। खाना पकाने हेतु मिट्टी के बर्तनों का ही अधिक प्रयोग करते हैं। लेकिन खाने के लिए दोना-पत्तल, अर्थात हर दिन एक नया बर्तन इस्तेमाल होता है। आदिवासी घरों में एक देव-कमरा होता है, जिसमें महिलाओं का प्रवेश वर्जित होता है। वहां मिट्टी तेल से रोशनी करना भी मना है। कन्या के प्रथम मासिक धर्म होने पर भाईबन्द उसका मुंह नहीं देखते। लड़की जंगल जाकर गड्ढा खोदकर पहली बार का फूल धरती माता को देती है। तीन दिनों के बाद लड़की को हल्दी-पानी से नहलाकर पीढ़े में बिठाकर हल्दी-चावल का टीका लगाते हैं तथा भेंट उपहार देते है।   

विवाह प्रथायें : बस्तर में बहुधा ममेरे-फुफेरे लड़के लड़कियों में विवाह संबंध को प्राथमिकता दी जाती है। ऐसा न होने पर गांव के अंदर ही विवाह संबंध करना उचित माना जाता है। कई बार लड़का-लड़की एक-दूसरे को पसंद कर कहीं भाग जाते हैं जिन्हें परिवार वाले ढ़ूंढकर लाते हैं, तब समाज में बैठका (मीटिंग) द्वारा फैसला कराया जाता है। यदि दोनों एक जाति समाज के हैं तो शादी हो जाती है, कुछ अर्थदण्ड अवश्य लगता है। अन्य समाज का मामला हो जाये तो उन लोगों को सामाजिक बहिष्कार भी झेलना पड़ जाता है किन्तु अंततः जुर्माना भरकर सामाजिक मान्यता प्राप्त हो जाती है। शादी का अन्य प्रकार यह भी है कि लड़की अपने पसंद के लड़के के घर आकर रहने लगती है और अपने घर वापस नहीं जाती, अंततः लड़के के मां-बाप लड़की को पसंद कर ही लेते हैं और शादी हो जाती है। समाज के फैसले के मुताबिक खर्चा दिया जाता है।

घोटुल (कुमार गृह) : यह आदिवासी युवक युवतियों का शिक्षा केंद्र है, जिसकी सदस्यता मात्र कुवारों के लिए है। यहां ये सब एक साथ रहकर रीति-रिवाजों तथा गृहस्थी की बारीकियों की शिक्षा नाचते-गाते-खेलते प्राप्त कर लेते हैं। घोटुल में लड़कियों को मोटियारिन तथा लड़कों को चेलिक कहा जाता है। हर सदस्य का घर का नाम और घोटुल का नाम अलग-अलग होता है। घोटुल के नायक (मॉनीटर) को सिरदार या सिलेदार कहते हैं। घोटुल नहीं आने के लिए सदस्य को उतने दिनों की छुट्टी लेनी पड़ती है। बिना छुट्टी के नागा करने पर जुर्माना होता है, जिसे अपमानजनक माना जाता है। बीमारी आदि में न आना अपवाद स्वरूप होता है। घोटुल के सदस्यों की एकजुटता समाज में जन्म विवाह-मृत्यु के समय सामाजिक कार्यों में देखी जाती है। उनकी सेवा भावना सबका मन जीत लेती है। घोटुल में युवाओं की हर प्रकार से परीक्षा हो जाती है।

प्रसव संबंधी प्रथायें : आदिवासी महिलाएं मज़बूत शरीर वाली और अदम्य साहसी होती हैं। इनमें रिवाज है कि गर्भवती महिला को जचकी के लिए घर से बाहर झोपड़ी बनाकर डेरा दिया जाता है। वहां वह स्त्री गर्म पानी से स्नान करती है और प्रसव वेदना होने पर बिना किसी की सहायता से स्वयं की ताकत से ही बच्चे को जन्म देती है। पुरुष वर्ग चावल लेकर देव को पुकारते हैं। बच्चा पैदा होने के बाद आदिवासी महिला स्वयं नहा-धोकर कपड़े पहनकर आ जाती है। उसे आग के पास सुलाया जाता है। सास तथा जेठानी बच्चे के नाल फूल को दोना-पत्ता में रखकर आग के किनारे रख देती हैं, जो धीरे-धीरे जलकर समाप्त हो जाता है। प्रसूता महिला को हरिला (हिरवा) या अरहर का पानी पिलाते हैं। इसके बाद पन्द्रह दिनों तक हांडी छुपाने का नैग-दस्तूर किया जाता है जिसमें गायतीन (आदिवासी पुजारिन) आती है नहला-धुलाकर तेल लगाकर कलश जलाकर मां बच्चा को चावल का टीका लगाकर आशीर्वाद की रस्म अदायगी की जाती है। घर के लोग शराब निकालते हैं। महुवा की सुरा से देव का तर्पण कर सभी लोग भोजन तथा गाना बजाना करते हैं।

मृत्यु संस्कार : आदिवासी समुदाय में किसी की मृत्यु हो जाने पर ढोल नगाडे़ को एक विशेष लय में बजाकर संदेश भेजा जाता है, जिसे सुन-समझ कर आस-पास के लोग मृतक के घर की ओर शीघ्र पहुंच जाते हैं शव को जलाने तथा जमीन में दफनाने, ये दोनों ही प्रकार की प्रथायें प्रचलित हैं। यदि किसी बुजुर्ग की मृत्यु होती है तो उसे शादी समझते हैं तथा उसी प्रकार गाजे-बाजे के साथ गीत गाते हुए शमशान ले जाते हैं। मठ में मुर्गा, शराब, नाच रंग, हास्य व्यंग सब कुछ वैवाहिक आनन्दोत्सव की तरह होता है। 5 या 6 दिनों बाद विशेष क्रिया कर्म होता है जिसे बड़े काम कहा जाता है। मृतक के लिए भोजन, शराब, कांदा, चावल, फल, बर्तन, कपड़ा आदि रखते हैं। इस अवसर पर पेड़ लगाने की भी प्रथा है, जैसे आम, तुलसी, सल्फी आदि। तालाब में कलश रखकर तेल हल्दी चढ़ाते हैं। परिवार के सब लोग पानी में मृतक की आत्मा तलाश करते हैं। मृतक का जिस पर ज्यादा प्रेम रहता है। उसे ही तालाब का कोई जीव जैसे मछली, मेंढक मिलता है। इसी जीव को डूमादेव कहते हैं। अब डूमादेवा की शादी का मण्डप बनाकर मृतक की जीवन शैली पर गीत गाते हैं। शराब पीकर झूमते, नाचते हैं।

अन्य विशिष्ट प्रथायें : आदिवासी समुदाय में भांजे का विशेष महत्व होता है। इसके पीछे पथ-प्रदर्शन की भावना रहती है। भांजे को दान दिया जाता है। बेटियां पूरे परिवार से नाच-गाकर, नाटक कर दान लेती हैं। खाने का सामान, लाई, चना, गुड़ आदि मेहमानों को बांटा जाता है। बाद में गायता (पुजारी) द्वारा पूरे घर में कसा-पानी का छिड़काव किया जाता है, कि कहीं घर तथा देवता अशुद्ध न हो गये हों।

आदिवासी समुदाय के लोग अपने कबीले में स्कूल शिक्षा को बहुत कम महत्व देते हैं। उनमें यह कहावत कही जाती है कि ‘कम पढ़े तो गांव से जाए और ज्यादा पढ़े तो देश से जाए’ अर्थात थोड़ा सा पढ़ेगा तो किसी नौकरी में गांव से बाहर जाएगा और ज्यादा पढ़ेगा तो राज्य से बाहर जाएगा। फिर वह हमारे सुख-दुःख का साथी नहीं होगा और मृत्यु कहीं बाहर हो गयी तो माटी नहीं मिलने के कारण माटी चोर हो जाएगा, मां-बाप के कर्ज़ को नहीं उतार पाएगा। इसी कारण से समाज के बुज़ुर्ग लोग स्कूली शिक्षा को महत्व नहीं देते। पारम्परिक काम-धन्धों में ही बच्चों को लगा देते हैं। आदिवासियों के जीवन में पैसा तो कम होता है किंतु उनके अनुभवों का खज़ाना अपार होता है कृषि कार्य और पशु पालन में तो वे निपुण होते हैं, हस्त कला, मूर्तिकला आदि में भी अत्यंत सुंदर कला के नमूने पेश करते हैं।

परिवर्तन, बरदेभाटा, कांकेर, छत्तीसगढ़

QUICK LINK

Contact Us

INSTITUTE for SOCIAL DEMOCRACY
Flat No. 110, Numberdar House,
62-A, Laxmi Market, Munirka,
New Delhi-110067
Phone : 091-11-26177904
Telefax : 091-11-26177904
E-mail : notowar.isd@gmail.com

How to Reach

Indira Gandhi International Airport (Terminal 2 & 3) - 14 Km.
Domestic Airport (Terminal 1) - 7 Km.
New Delhi Railway Station - 15 Km.
Old Delhi Railway Station - 20 Km.
Hazrat Nizamuddin Railway Station - 15 Km.