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सांप्रदायिकता

भाजपा त्र आरएसएस

आईएसडी

जवाहरलाल नेहरू ने जनसंघ को आरएसएस की नाज़ायज़ औलाद कहा था (द हिंदू, जनवरी 6, 1952)। रणनीतिगत कारणों से आरएसएस ने इस औलाद को जनता पार्टी को दत्तक दे दिया था पर बाद में आरएसएस ने फिर इस औलाद को भाजपा के रूप में जनता पार्टी से वापिस ले लिया। इसका तब उद्देश्य जयप्रकाश नारायण की विरासत को हथियाना था। लेकिन आरएसएस ने कुछ ही समय बाद इस पर अपना नियंत्रण कस लिया। नयी शब्दावली ईजाद की गयी जिनके अलग-अलग अर्थ होते थे। मिसाल के तौर पर पर्सनॉलिटी कल्ट का मतलब था कि भाजपा का कोई भी नेता (वाजपेयी या आडवाणी) आरएसएस के आदेशों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। जैसे ही आडवाणी ने इसकी कोशिश की उन्हें भाजपा का अध्यक्ष पद खोना पड़ा। वाजपेयी वैसे ही उम्र के उस पड़ाव में हैं जहां आरएसएस को उनकी कोई परवाह नहीं है।

पिछले एक साल में एक नया ट्रेंड सामने आया है। भाजपा को अनुशासित करने के लिये आरएसएस विहिप की तारीफ करने में लगा है। अप्रैल 2, 2005 को आरएसएस के प्रमुख के. एस. सुदर्शन ने कहा था कि गोलवालकर गुरु जी की सबसे बड़ी उपलब्धि थी कि उन्होंने विहिप को ‘हिन्दू जागरण’ करने का आदेश दिया था जबकि भाजपा को राजनीति करने का। सुदर्शन ने कहा कि वाजपेयी और स्वर्गीय सुंदर सिंह भंडारी पहले प्रचारक थे जिन्हें जनसंघ की मदद करने के लिये भेजा गया था। (दि हिन्दू, अप्रैल 29, 2005)

आरएसएस ने मई 2004 के चुनावी नतीजों को अलग तरीके से समझा। वैसे बिल्कुल नहीं जैसे आडवाणी और उनके साथियों ने समझा। स्व. प्रमोद महाजन ने भाजपा की हार के तीन कारण बताये थे - राममंदिर निर्माण की प्रक्रिया में सुस्ती, गुजरात जनसंहार और भाजपा की आंतरिक हालत। (इंडिया टूडे, मई 1, 2005)। आडवाणी के मुताबिक मध्य मार्ग को छोड़ना भाजपा की हार का कारण था। पाकिस्तान पहुंचते ही उनका बयान कि मेरी छवि और मेरा व्यक्तित्व मेल नहीं खाते। उनका बयान कि ‘‘बाबरी मस्जिद का ढहाना मेरी ज़िन्दगी का सबसे उदास दिन था’’ और रथयात्रा के दौरान कंधार विमान अपहरण का मुद्दा उठाना और ये कहना कि हज़ारों डॉलर देने और आतंकवादियों की अदला-बदली में वो दोषी नहीं हैं। ये तीनों बयान अपनी छवि को उदारवादी बनाने की कोशिश और आरएसएस से मुक्ति के परिप्रेक्ष्य में समझने चाहियें। साथ में ये भी याद रखना चाहिये कि आरएसएस बाबरी मस्जिद के ढहने को एक बड़ी उपलब्धि मानता है और उसके ही आदेश पर आडवाणी को अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा और राजनाथ सिंह को नियुक्त किया गया।

सच तो यह है कि आडवाणी को इन बयानों के पीछे न तो किसी तरह का पछतावा था, ना ही राजनीतिगत सुधार, असली मकसद था अपनी छवि बदलने का। कश्मीर के मुद्दे पर भी पाकिस्तान में आडवाणी के हर बयान के पीछे एक ही पैगाम था - वो बदल गये हैं वो अब अखण्ड भारत के समर्थक नहीं रहे। इस छवि को बनाने में जिन्ना के बारे में बयान सबसे बड़ी पराकाष्ठा थी। ये बात याद रखनी चाहिये कि पिछले पचास साल के राजनैतिक जीवन में आडवाणी ने कभी भी जिन्ना की तारीफ या जिन्ना के बारे में दूर-दूर तक कोई बयान नहीं दिया। दूसरी बात जिन्ना के बारे में बयान पाकिस्तान जाने से पहले तैयार किया गया था। इसका मकसद था भारत में अपनी छवि सुधारने का। इस मकसद में आडवाणी पूरी तरह से नाकाम रहे। विहिप के अध्यक्ष अशोक सिंघल ने साफ-साफ कह दिया कि वाजपेयीयों और आडवाणीयों जैसों का वक्त अब निकल गया है। अब संघ परिवार भाजपा के लिये नयी दिशा तैयार करेगा।

भारत आते ही आडवाणी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। दो दिन बाद उन्होंने इस्तीफा वापिस ले लिया। अगले दिन भाजपा की संसदीय बोर्ड ने आडवाणी की पाकिस्तान यात्रा का स्वागत किया पर जिन्ना से जुड़े बयान को कोई समर्थन नहीं दिया।

स्व. प्रमोद महाजन ने कहा कि हालांकि भाजपा आरएसएस की विचाराधारा से सहमति रखती है पर संगठनात्मक मामलों में पार्टी स्वतंत्र है। लेकिन सच कुछ और था। प्रमोद महाजन के अपने शब्दों में: ‘पिछले एक दशक में सरसंघचालक का पार्टी के मामलों में दखल बढ़ा है। अब सरसंघचालक ही भाजपा के राज्य और ज़िले स्तर पर अघ्यक्ष नियुक्त करते हैं और अपनों को ही चुनाव लड़ने का टिकट देते हैं। मतलब महाजन यह मान रहे थे कि आरएसएस भाजपा की माँ है इसलिये माँ ने बच्चे को अपने पैरों पर चलने देना चाहिये। इसे बच्चे को सार्वजनिक तौर पर डाँटना और धमकाना नहीं चाहिये। आरएसएस का गैर राजनीतिकरण होना चाहिये।’

भाजपा को मानो चेतावनी देने के लिये सुदर्शन ने जून 19, 2005 को इंदिरा गांधी की इच्छाशक्ति और साहस की तारीफ की। 9 जुलाई 2005 को आरएसएस ने भाजपा और विहिप के नेताओं (आडवाणी और तोगड़िया) को संघ परिवार का अनुशासन तोड़ने के लिये फटकारा और ये भी कहा कि आरएसएस के उच्चासीन पदाधिकारी संबंधित नेताओं से बात करेंगे और संघ के मतों से उन्हें अवगत करायेंगे। जार्ज फर्नांडिस और अटल बिहारी वाजपेयी को भी आडवाणी की पैरवी के लिये आरएसएस ने फटकारा। आरएसएस के एम. जी. वैद्य ने भाजपा के नेतृत्व को लेकर (आडवाणी को अध्यक्ष के रूप में लेकर) कहा कि यह भाजपा को तय करना है कि क्या वो धूमिल छवि के नेतृत्व में काम करना चाहती है ? वैद्य ने आरएसएस भाजपा के रिश्तों को एक बार फिर परिभाषित करते हुए कहा कि उन दोनों में (भाजपा और आरएसएस में) उन स्वयंसेवकों के माध्यम से रिश्ता है जो भाजपा में काम करते हैं। भाजपा के साथ हमारा रिश्ता संवैधानिक नहीं है। हम दोनों में करार जैसी कोई चीज़ नहीं है। आरएसएस के समर्थन के बिना भाजपा और उसके नेता कहीं के नहीं रहेंगे। स्वयंसेवक जो भाजपा में गये हैं या भेजे गये हैं वे आरएसएस की विचारधारा को आगे बढ़ाते हैं। साफ ज़ाहिर है भाजपा आरएसएस पर पूरी तरह निर्भर है। वैद्य ने कहा कि भाजपा संघ का जीवन और साँसे नहीं है। हमारी ज़िन्दगी भाजपा पर निर्भर नहीं है। अक्टूबर 23, 2005 की चित्रकूट की बैठक में आरएसएस ने कहा कि ये देखना हमारा (आरएसएस) काम है कि भाजपा सही रास्ते पर जा रही है या नहीं। नवम्बर 5, 2005 को सुदर्शन ने कहा कि वाजपेयी और आडवाणी दोनों व्यक्तिगत तौर पर बहुत कद्दावर हो गये हैं इसलिये उन्होंने आरएसएस के सामूहिक नेतृत्व प्रणाली को छोड़ दिया है। दिसम्बर 24, 2005 के आर्गनाईज़र में कहा कि आरएसएस और दूसरी पार्टियों को समर्थन देने में नहीं हिचकेगी।

आडवाणी ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कहा कि भाजपा ने संस्कृति और राष्ट्रवाद की विचारधारा आरएसएस से ग्रहण की है और भाजपा और आरएसएस दोनों अविभाज्य हैं। उन्होंने आगे कहा कि मुझे अफसोस है कि मैं अपनी भावनाएं संघ को ठीक से नहीं समझा पाया।

राजनाथ सिंह ने अपना कार्यकाल ये कहकर शुरू किया कि हम सब संघ के कार्यकर्ता हैं। आखिर राजनाथ सिंह को आरएसएस ने जो चुना था। राजनाथ की मूल टीम के सदस्य आरएसएस के नरेन्द्र मोदी और बजरंग दल के विनय कटियार थे। 35 आफिस बेयरअर्स में से 11 आरएसएस से जुड़े हुए थे।

मार्च 7, 2006 के वाराणसी में हुये आतंकवादी धमाकों के फौरन बाद पार्टी से बिना पूछे आडवाणी ने रथयात्रा का एकतरफा ऐलान कर दिया। राजनाथ सिंह ने उसे स्वीकारा पर विहिप ने उसकी ज़ोरदार आलोचना की। सुदर्शन ने आडवाणी को इस ऐलान को लेकर फटकारा। साथ ही ‘आर्गनाईज़र’ ने कहा कि इस यात्रा का आरएसएस का विरोध करने का सवाल ही नहीं उठता।

सोचने की बात है आडवाणी इतनी फटकार के बाद भी, ये मानने को तैयार नहीं थे कि वो अब भाजपा के नेता नहीं हैं। 2 अप्रैल, 2006 को उन्होंने कहा कि वो भाजपा की छवि बदलना चाहते हैं। उन्होंने राष्ट्रीय एकात्मकता यात्रा का नाम बदलकर ‘भारत सुरक्षा यात्रा’ रख दिया गया। रथयात्रा के दौरान मुस्लिम तुष्टीकरण, राम मंदिर निर्माण और समान नागरिक संहिता जैसे सांप्रदायिक मुद्दे उठाये गये। प्रमोद महाजन की अचानक हत्या के बाद रथयात्रा रोक दी गयी। सवाल उठता है कि क्या कोई राजनीतिक पार्टी किसी वरिष्ठ नेता की अचानक मौत के बाद अपना प्रोग्राम रोक देती है ?

भाजपा को सत्ता से निकले दो साल ही हुए हैं। इन दो सालों में आरएसएस ने भाजपा पर पहले से भी कहीं ज़्यादा पकड़ बना ली है। इसका ताज़ा सबूत ये है: हाल ही मई के महीने में आरएसएस के दबाव में भाजपा ने पार्टी संविधान में महत्वपूर्ण संशोधन करते हुए संगठन महासचिव को न हटाने का प्रावधान कर दिया है। संशोधन में ये व्यवस्था भी की गयी है कि संगठन महासचिव अध्यक्ष  के बाद सबसे ज़्यादा शक्तिशाली होगा। राजनीति के स्तर पर ताज़ा उदाहरण है : आरएसएस ने भाजपा शासित राज्यों को अपना एजेंडा थमा दिया है जिसको वे सभी लागू कर रहे हैं। इसमें शिक्षा का भगवाकरण विशेष स्थान रखता है। इस बात से एक बात साफ हो जाती है कि मीडिया और प्रेस का जो एक घटक इस मिथक को गढ़ रहा था कि वक्त के साथ-साथ भाजपा का हिंदुत्ववाद कमज़ोर हो जायेगा, वो अपनी विचारधारा में उदारता लायेगी और एक दक्षिणपंथी धर्मनिरपेक्ष पार्टी में तब्दील हो जायेगी, वो पूरी तरह गलत साबित हुआ। ऊपर लिखे से साफ साबित हो जाता है कि आज भी आरएसएस ही भाजपा की राजनीतिक दिशा तय कर रहा है और भाजपा सांप्रदायिक, फासिस्ट, अल्पसंख्यक विरोधी और संविधान में विश्वास न रखने वाली ही पार्टी है और बनी रहेगी। भाजपा में बिखराव और अलगाव भी आ रहा है। ये कई मायनों में शुभ संकेत है। विहिप, भाजपा (रा) को हिंदुत्ववादी पार्टी नहीं मानती। भाजपा (उ) अपने आपको असली भाजपा कहती है। और आरएसएस सोनिया गांधी, इंदिरा गांधी और कांग्रेस की तारीफ कर रहा है। ऐसे में धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और वामपंथी ताकतों की ज़िम्मेदारी है कि वो देश को इन सांप्रदायिक ताकतों के खतरे से रोज़ अवगत ही न कराते रहें पर समाज के धर्मनिरपेक्षीकरण के लिये जनजागरण आंदोलन चलायें।

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