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सांप्रदायिकता

हिन्दुत्व आन्दोलन का सामाजिक आधार

राम पुनियानी

हिन्दुत्व आन्दोलन का प्रारंभ अधिकांशत: ब्राह्मणों के नेतृत्व में हुआ। इसे जमींदार कुलीन वर्ग और मध्यम वर्ग के कुछ तबकों से समर्थन मिला। गरीब किसानों के साथ-साथ उभर रहे उद्योगपतियों और नये व्यावसायिक तबके के लोगों ने खुद को गांधीजी के राष्ट्रवाद के साथ जोड़ा, जबकि मातहत वर्ग ने अपने आपको अंबेडकर या कम्युनिस्ट पार्टी के आन्दोलन के साथ जोड़ा।

प्रशिक्षित, समर्पित, तपस्वी कार्यकर्ताओं के बावजूद धर्मिक राष्ट्रवाद उत्तर भारत के हिन्दीभाषी क्षेत्र में ब्राह्मणों, बनियों, ध्नी किसानों और मध्यम वर्ग तक ही सीमित रहा। गोहत्या बंदी, ‘मुसलमानों का भारतीयकरण’ के अभियान की विफलता इसका सूचक है। साम्प्रदायिक दंगे भी छठे दशक से होना शुरू हुए और समय बीतते उत्तरोतर भयानक रूप धरण करते गये। सातवें और आठवें दशक तक हिन्दुत्व की विचारधरा शीघ्रता से पफैलती गयी और मुस्लिम विरोधी दंगे विकराल रूप लेने लगे।

जनसंघ और उसके उत्तराध्किारी भाजपा की शुरुआत शहरी मध्यम वर्ग, ब्राह्मणों के एक तबके तथा बनियों के समर्थन से हुई। आइए, हम लोकतंत्र के विगत 50 वर्षों में हुए सामाजिक ढांचे में बदलाव का जायजा लें। शहरी आबादी का अनुपात 20 से 25 प्रतिशत बढ़ा है। औद्योगीकरण की प्रक्रिया के दौरान हासिल आधुनिका शिक्षा तथा अन्य सुविधाओं का लाभ इस तबके को मिला। निश्चित ही समाज में उनकी उपस्थिति एक प्रमुख हैसियत रखती है। इस तबके की सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनैतिक आकांक्षाओं के आधर पर ही संघ परिवार की इमारत खड़ी हुई।

संघ परिवार के सामाजिक आधर को समझने के लिये हम गुजरात के सामाजिक दलों के पुनर्दलीकरण पर एक नजर डालें। नन्दी जैसे लेखकों ने इस प्रक्रिया पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है। शहरीकरण की इस प्रक्रिया के साथ-साथ गुजरात के सम्पन्न किसान वर्ग की प्रगति की भी समान्तर प्रक्रिया चलती रही जिसने उसका सामाजिक दर्जा और भी बढ़ाया। इस पाटीदार जाति; नगदी (फसल उगाने वाले) के किसानों को— ‘धार्मिक चालाकी’ से ऊंचा दर्जा दिया गया। मध्यम वर्ग; (ब्राह्मण, बनिया) और पाटीदारों के बीच निचली जातियों को आरक्षण देने के मुद्दे पर 1980 के आसपास ध्रुवीकरण हुआ। 1980 में गुजरात में निचली जातियों के खिलापफ हिंसा की तीव्र वारदातें हुईं। आरक्षण विरोधी आन्दोलन ने ऊंची जाति तथा उच्च मध्यम वर्ग को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संघ परिवार सीधे या परोक्ष रूप से इस ऊंचे वर्ग के आक्रमण में इनके साथ रहा है।

अपनी चतुर रणनीति से संघ परिवार दलितों के एक तबके को हिंदू समाज के भीतर एक बेहतर स्थान दिला सकने की आकांक्षा के लिये लामबंद करने में कामयाब रहा। यहां गुजरात में सामाजिक घटनाओं ‘‘दूसरों’’ (मुस्लिम) के निर्माण को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यहां पर पहले दलितों से नफरत की जाती थी लेकिन बड़ी चालाकी से इस नफरत को मुसलमानों की तरफ मोड़ दिया गया। इसके लिये दलितों को ‘‘दूसरों’’ की तरफ मोड़कर आतंक के वातावरण का निर्माण किया गया और इससे समाज की जाति-व्यवस्था को बरकरार रखने में मदद मिली। वि.हि.प. की कई यात्राओं और अभियानों ने इस सामाजिक आधार को मजबूत किया।

सरकार और समित सेन ने अपनी किताब; (खाकी शॉर्टस : सैफ्रन फ्लैग) में संघ परिवार आन्दोलन की जड़ों को खोजने का प्रयास किया है। उन्होंने इसे आजकल के पैदा हुए ‘‘जय माता दी’’, ‘‘जय संतोषी’’ जैसी नई पूजा पद्धतियों या धर्मिक देवियों तथा ‘‘जगराता’’ जैसे आयोजनों और ‘‘वैष्णोदेवी’’ जैसी नई तीर्थयात्राओं को इससे जोड़ा है। इनकी शुरूआत उत्तरी राज्यों में छठे दशक के उत्तरार्द्ध और सातवें दशक के पूर्वार्द्ध में हुई जिसे वि.हि.प. के अभियान के रंग में रंग दिया गया। बसु ने तेजी से बढ़ रहे छोटे-छोटे उद्योग धंधे तथा व्यवसायों में आ रही तेजी के कारण छोटे शहरों में उभर रहे मध्यमवर्गीय तबकों में बढ़ रहे संघ परिवार के सामाजिक आधर को एक महत्वपूर्ण कारण माना है। ये लघु उद्योग इकाइयां इस कदर तेजी से पनपीं कि इक्का-दुक्का इकाइयों में मजदूरों को संगठित कर पाना तथा प्रभावकारी ट्रेड ड्राइवर टेक्नॉलॉजी पर आधरित, और कहीं से बने बनाये पुर्जें लाकर एक जगह पर जोड़ना इस तरह उद्योगों का 70-80 के दशक में तेजी से फैलाव हुआ। यह नव मध्यम वर्ग छोटी-छोटी व्यक्तिगत इकाईयों के रूप में काम करने का झुकाव है। उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में हरित क्रांति ने ग्रामीण क्षेत्रों में धनी किसानों की क्रय शक्ति को बढ़ाया जिससे शहरी उद्योग धंधे, उपभोक्तावाद तथा व्यापार को तेजी मिली।

आन्दोलन का चरित्र-चित्रण
अधिकांश समाज ने इस आंदोलन के चरित्र को साम्प्रदायिक बताया है। उदार, प्रगतिशील बुद्धिजीवी वर्ग के तबके में अधिकांश लोगों की व्यापक मान्यता है कि यह हिंदू कुलीन वर्ग की सामाजिक और राजनैतिक ताकत को मजबूत करने के लिये संघ परिवार की अगुवाई में चलाया जा रहा एक साम्प्रदायिक आन्दोलन है। इसकी प्रमुख गतिविधि है अपने कार्यकर्ताओं को विभिन्न संगठनों भा.ज.पा., वि.हि.प., बजरंग दल, स्वदेशी जागरण मंच वनवासी कल्याण आश्रम इत्यादि को क्रियाशील रखने हेतु सिद्धांतों का प्रशिक्षण देना, जो अल्पसंख्यकों, खास करके मुसलमानों; और आजकल इसाईयों के खिलाफ साम्प्रदायिक जहर फैलाने का काम खुले आम करते हैं। अब तक संघ परिवार ने समाज, पुलिस, सेना और नौकरशाही में साम्प्रदायिकता का जहर फैलाने में अच्छी खासी ‘सफलता’ पा ली है। मोटे तौर पर इसे साम्प्रदायिक आन्दोलन कहते हैं।

‘धार्मिक राष्ट्रवाद’ यह साम्प्रदायिक आन्दोलन का समर्थन करने वाले समाजशास्त्रियों द्वारा किया गया चरित्र चित्रण है तथा इस पर शालीनता का मुलम्मा चढ़ाने का एक प्रयास है। जरगेन्समेयर ने अपनी किताब ‘Understanding the Religious Nationalism’ में इसे लोकतंत्र तथा समाजवाद, इन दोनों पश्चिमी प्रारूपों की असफलता बताया है जिसके कारण धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद भी असफल हुआ। इसलिये ये लोग धर्म को एक आशावादी विकल्प के रूप में देखते हैं जो उन्हें आलोचना तथा परिवर्तन के लिये आधार प्रदान करता है। इनके अनुसार तमाम धर्मिक नेताओं के बीच मतभेद तो बहुत गहरे हैं लेकिन उन सब में एक बात की समानता है कि वे सभी पश्चिमी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद को शत्रु मानते हैं और जनता के बीच अपने धर्म के पुनरुत्थान की उम्मीद रखते हैं। जरगेन्समेयर ऐसे आन्दोलनों को मूलतत्ववादी कहने से हिचकते हैं क्योंकि उनके अनुसार यह शब्द ‘‘एक दंभी और संकीर्ण हठधर्मी धर्मिक पोथीनिष्ठा’’ को व्यक्त करता है। यह व्याख्या वर्णात्मक कम और अभियोगात्मक अधिक है। इसके अलावा संस्कृतियों की तुलना करने के लिये यह एक अनुपयुक्त व्याख्या है। इस तथ्यात्मक घटना की बेहतर व्याख्या ब्रुस लॉरेन्स ने की है, उनके अनुसार धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के खिलाफ यह एक वैश्विक बगावत है जो ज्यादातर आधुनिक समाज के साथ रहता है। इसके अनुसार ‘‘आधुनिक’’ वो लोग हैं जो आधुनिकता के मूल्यों का विरोध करते हुए ‘‘आधुनिक’’ हैं। इसके अतिरिक्त मूलतत्ववादी कोई राजनैतिक विचार नहीं रखते और समाज और दुनिया के स्वभाव के बारे में व्यापक रवैया रखने के बजाय वे केवल धर्मिक विश्वासों से प्रेरित विचारों को ही व्यक्त करते हैं। धर्मिक राष्ट्रवाद यह शब्द धर्म और राजनैतिक स्वार्थ के मुख्य अर्थ को व्यक्त करता है और कहता है कि धर्म और राजनीति में कोई स्पष्ट अंतर नहीं हैं और अंतर है भी तो वह पश्चिमी सोच की देन है।

लेकिन यह चरित्र चित्रण इसकी आक्रामकता के विभिन्न व्यापक तथा गहरे पहलुओं को पूरी तरह से समझ सकने में असमर्थ है। इसके अलावा इस आन्दोलन की तीव्रता और दीर्घकालीन स्वभाव को समझा पाने में यह व्याख्या असमर्थ है। इस कमी को पूरा करने के लिये कुछ समाजशास्त्रियों (राम बापट) ने इसे मूलतत्ववादी आन्दोलन करार दिया है जैसा कि ईरान जैसे देश में चल रहा है। इस सूत्र के अनुसार भारतीय मूलतत्ववाद वैश्विक मूलतत्ववाद की तरह उत्तर-औद्योगिक समाज में हर जगह व्याप्त है, और यह प्रगत पूंजीवादी या विलम्बित पूंजीवादी व्यवस्था की निर्मिति है।

तीसरी दुनिया के देशों में यह प्रत्यक्ष रूप में होता है जबकि प्रगतिशील देशों में यह गुप्त रूप में होता है। बापट का मानना है कि प्रगतिशील विश्व के जनमत की शक्ति के अभाव में इस सदी के अन्त में, पहली दुनिया के लोग विश्व राजनीति के एजेन्डे में तथा सैनिक उदेश्यों के लिये भी मूलतत्ववाद को सर्वोपरि रखने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं। 60 और 70 के दशक में समाजवाद की विजय के साथ राष्ट्रवाद संस्थापित हुआ। इसके बाद आने वाले दो दशकों में पुनर्जागरण और मूलतत्ववाद की शुरुआत हुई। मूल रूप से मूलतत्ववाद अमेरिका में विकसित हुआ जब 1870 और 1930 के बीच पूंजीवाद को संकट का सामना करना पड़ रहा था, उसी तरह दूसरे देशों को भी जब गंभीर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा तब समाज के कुछ तबकों से मूलतत्ववाद एक प्रतिक्रिया के रूप में उभरा। अमेरिका में मूलतत्ववादी प्रतिक्रिया एक आन्दोलन के रूप में आयी जिसने पुनरूत्थानवादी प्रवाह को अमरीकी नागरिकों द्वारा प्रतिगामी शक्तियों को ग्रहण करने के लिये समर्थ बनाने हेतु धर्म के साथ जोड़ा। बापट एक प्रासंगिक बात बताते हैं कि 1918 से सभी भारतीय राज्यों में महाराष्ट्र सभी किस्म के वाद सनातनवाद, पुनर्जागर, मूलतत्ववाद और खास करके हिंदुत्व शैली के सम्प्रदायवाद - का उर्वरक क्षेत्र रहा है। मूलतत्ववाद की ही बात लें तो हिंदुत्व लाखों लोगों द्वारा आचरण में लाये जाने वाला हिंदू धर्म नहीं है। यह (हिंदुत्व) एक काल्पनिक हिंदूवाद है। मूलतत्ववाद न तो विचारों के पारंपरिक स्वरूप पर आधरित है और न मौजूदा परंपरा पर आधरित है। वह ‘‘गढ़ी गयी परंपराओं’’ के प्रचार के बल पर लोगों को प्रभावित करते हैं। वह आधुनिकता, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, सामरिक हथियार और औद्योगिक उत्पादन की उपलब्ध्यिों को ग्रहण करता है। वह मानव के बीच आपसी उदार संबंधें, जो कि उन्हें उनके अधिकारों के लिये संघर्ष की जगह बनाते हैं, के बगैर जीवन के आधुनिक उपकरण चाहता है। संक्षेप में यह एक खास किस्म की आधुनिक संस्कृति हासिल करना चाहता है यानी मानवीय संबंधों में सुधर हेतु उदार मतवाद के बगैर आधुनिक आधुनिक उत्पादन प्रक्रिया। यह उत्तर सामंती घटना है जिसका लक्ष्य है सत्तारूढ़ वर्ग के लिये एक नई पहचान की खोज करना।

यह धर्मिक भाषा का उपयोग करता है। मूलतत्ववाद केवल सेमेटिक धर्मों में संभव है। विगत कई दशकों से हिंदू धर्म की सेमेटिकरण प्रक्रिया जारी है। सेमेटिक हिंदू धर्म जो वास्तव में ब्राह्मणीय हिंदू धर्म है, ने पवित्र पुस्तक के रूप में ‘गीता’, पवित्र देवता के रूप में ‘राम’ तथा आचार्यों तथा महन्तों को बतौर ‘‘पुरोहित’’ के रूप में स्थापित किया है। इस मूलतत्ववादी आन्दोलन का लक्ष्य है प्राचीन भाषा में कुलीन वर्ग के हितों तथा कार्यक्रमों को वर्तमान में लादना।

 

हिन्दुत्व

मूलतत्ववाद

समाज की उदार नीतियों को अपने हमले का लक्ष्य बनाना।

वही

धर्मिक ग्रंथों से चुने गये पतनशील मूल्यों को समाज पर लादना

वही

स्वदेशी का शोरगुल

साम्राज्यवाद विरोधी शोरगुल

गीता, वेद, राम और आचार्यों पर आधरित निर्माण

सेमेटिक धर्म - पवित्र ग्रंथ, पवित्र देव और पुरोहित पर आधरित

पारंपरिक सनातनी मान्यताओं का राग अलापना

वही

औरत को आदर्श माता के रूप में प्रदर्शित करना

पिता, पति और पुत्र के पितृसत्तात्मक नियंत्रण में औरत का स्थान

हमारा धर्म ग्रंथ वेद यह ईश्वर निर्मित है

हमारा पंथ स्वयं भगवान द्वारा प्रेषित पवित्र नियमों-पवित्र ग्रंथों पर आधरित है

धार्मिक सत्ता के सुनहरे युग की दुहाई

वही

हिंदू संस्कृति की एकरूपता की मांग

बहुलवाद से घृणा करना

समूचे समाज पर सवर्ण मध्यम वर्ग के हित में राजनैतिक दबाव

वही

मुसलमानों को आंतरिक दुश्मन बताकर उनके खिलाफ उन्माद खड़ा करना।

(ईरान के शाह के खिलाफ ईरान में, महिलाओं के खिलाफ सउदी अरब में उन्माद पैदा करना

महिलाओं के पहनावे के नियम को महत्व देना

वही

धर्म के प्रति भावनात्मक अपील करना

वही

बापट का मत है कि संघ परिवार फासिस्ट नहीं है क्योंकि फासीवाद अपने आक्रामक रवैये के लिये धर्म का सहारा नहीं लेता है। इसके विपरीत एजाज अहमद, के.एन.पणिक्कर, सुमित सरकार जैसे कई समाजशास्त्रियों  ने संघ परिवार को फासिस्ट करार दिया है। सरकार के अनुसार, हो सकता है कि संघ परिवार का आंदोलन जर्मन फासीवाद के ठीक जैसा न लगता हो, किन्तु उनके नजदीकी संबंधों तथा फर्क को बारीकी से देखने पर उनकी विशेषताओं पर प्रकाश पड़ता है, मिसाल के तौर पर 1992-93 के समय संघ परिवार का आक्रामक रवैया। हिंदू राष्ट्र के अभियान ने हमारे गणतंत्र के समूचे धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक आधार को खतरे में डाल दिया है। यह हिंदू साम्प्रदायिकता है जो भारत में फासीवाद लादने की क्षमता रखती है न कि मुस्लिम साम्प्रदायिकता। सरकार ने इंगित किया है कि इटली और जर्मनी में बहुत सुनियोजित तरीकों (जन समर्थित) से सड़कों पर हिंसाचार, पुलिस, नौकरशाही और सेना में गहरी घुसपैठ और मध्यमार्गी राजनैतिक नेताओं की मौन सहमति से फासीवाद का प्रवेश हुआ। उदाहरण के तौर पर हिटलर, जो बार-बार दावे के साथ यह कहता था कि सत्ता में आने के बाद भी उसकी पार्टी कानून का सम्मान करेगी, लेकिन इध्र उसके साथी गोअरिंग, फासिस्ट जर्मन पुलिस सड़कों पर सुनियोजित मुठभेड़ कराती रही जिसमें 50 से भी अधिक नाज़ी विरोधियों की हत्या की गयी और राइखस्टाग में आग लगा दी गयी जिसके बाद सर्वप्रथम कम्यूनिस्ट और तत्पश्चात सभी विरोधी पार्टियों और ट्रेड यूनियनों को शीघ्रता से नष्ट कर दिया गया। बाबरी मस्जिद के विनाश के लिये अख्तियार किया गया तरीका काफी हद तक फासीवादी तरीके की याद दिलाता है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को पूरी तरह से भंग करके तथा प्रमुख विपक्षी पार्टी द्वारा आश्वासन दिये जाने के बावजूद साढ़े 5 घंटों में बाबरी मस्जिद ढहा दी गयी और बाबरी मस्जिद के पूरी तरह से नेस्तनाबूद होने तक केंद्र सरकार ने एक उंगली तक नहीं उठाई। उसके बाद देश भर में दंगे हुए, पुलिस का रवैया पक्षपातपूर्ण रहा, कार सेवकों ने उस जमीन पर कब्ज़ा करके वहां पर एक गैरकानूनी ‘‘अस्थायी’’ मंदिर बना दिया और इस निर्माण को सुरक्षा प्रदान की गयी जबकि इन सब वारदात के पीछे राजनैतिक ताकत थी। भाजपा इस मामले पर कभी-कभी अफसोस व्यक्त करती है लेकिन ज्यादातर वह समर्थन ही करती रही है, वि.हि.प. ने दिल्ली की जामा मस्जिद को हिंदू स्थल बताते हुए भारतीय संविधन को हिंदू विरोधी घोषित किया। 6 दिसम्बर के दिन पत्रकारों को मारने-पीटने की घटना कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि आम तौर पर पत्रकारों से संभलकर संबंध जोड़कर रखने वाली फासिस्ट ताकतें कभी-कभी डंडे के बल पर दबाव डालना पसंद करती है।

इटली और जर्मनी में फासीवाद एक दशक या उससे कम समय में एक राजनैतिक आंदोलन के रूप में उभरा जब कि हिन्दुत्व को उभरने में  अधिक समय लगा जिसके कारण इस आंदोलन को अधिक ताकत और स्थिरता मिली और यह लम्बा समय इस विचारधरा को आम सामाजिक सोच का एक हिस्सा बनाने के लिये पर्याप्त था। सरकार ने ठीक ही कहा कि संघ परिवार का असली आधर मुख्य रूप से हिंदी भाषी क्षेत्र के शहरों तथा छोटे नगरों में उच्च जाति के व्यापारियों तथा व्यावसायिक मध्य वर्ग के बीच रहा है जिसके संबंध् देशभर के बड़े जमीनधारक गुटों के साथ विकसित होते रहे। उन्होंने डैनिएल गुरियन द्वारा फासिज़्म की व्याख्या का जिक्र किया है कि ‘‘फासीवाद न सिर्फ बड़े व्यवसायियों की सेवा का एक साधन रहा है बल्कि साथ ही साथ मध्यम वर्ग का गूढ़ परिवर्तक भी रहा है।’’

बड़े उद्योगों के साथ फासीवाद के विशेष संबंध विवादास्पद रहे हैं। सुव्यवस्थित प्रचार तंत्र के द्वारा संघ परिवार एक साम्प्रदायिक सामाजिक सोच पैदा करने में सफल रहा है जिसमें श्वेत वंशवाद के समकालीन यहूदियों या काले लोगों की तरह मुसलमानों के प्रति नफरत की भावना पैदा की गयी। संघ परिवार के मुताबिक भारत में मुसलमानों को अनुचित लाभ मिल रहा है। यह आरोप उसी तरह से अनर्गल है जैसा कि जर्मनी में किया जाता था—जहां पर यहूदी काफी कम संख्या में थे और सम्पन्न थे। भारत में, मुसलमानों का व्यवसाय, नौकरशाही, सेना, पुलिस, निजी कंपनियों इत्यादि में कम प्रतिनिधित्व है। यहां पर छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों द्वारा तुष्टिकरण ही मुसलमानों को मिलने वाला कथित लाभ है। जर्मनी के हिटलर की तरह संघ परिवार भी खुद को हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करने का दावा करता है और इस सम्बन्ध में इसकी लोकतांत्रिक विश्वसनीयता सर्वविदित है। उसी तरह चूंकि संघ परिवार ही हिन्दुओं का ‘एकमात्र’ नुमाइन्दा है इसलिये इसकी विचारधरा के खिलाफ जाने वाला व्यक्ति या तो हिन्दू विरोधी है या फिर छद्म धर्मनिरपेक्ष है। यहूदियों को गैस चैम्बर की यातना मिली लेकिन हिन्दुत्व की विचारधारा उसकी तुलना में ‘‘दयालु और उदार’’ इस बात में है कि उन्होंने मुसलमानों को दूसरे दर्जे की नागरिकता की पेशकश की है। लगातार होने वाली मुस्लिम विरोधी हिंसा ने, जिसे सौम्य भाषा में ‘‘साम्प्रदायिक दंगे’’ कहा जाता है, बड़ी संख्या में मुसलमानों की आबादी को सिमट कर रहने के लिये मजबूर कर दिया है। इसके अलावा संघ परिवार की पहचान का आधार धर्म है, नाजियों के बारे में ऐसी बात नहीं थी।

ऐजाज अहमद ने इसे हिन्दुत्व फासीवाद कहा है और इसे इटली या जर्मनी के फासीवाद से इस आधार पर अलग करार दिया है कि फासिस्टों की तुलना में ये लोग आर्थिक मुद्दे पर बहुत कम बात करते हैं। उन्होंने राष्ट्र और संप्रदाय की अवधारणा के आधार पर अपनी विचारधरा को गाढ़ा और इस पहचान को हासिल करने के लिए उन्होंने एक राजनैतिक हथियार के रूप में हिंसा का उपयोग भी किया। हिन्दुत्व ने राजसत्ता पर कब्जा पाने के लिए एक साधन के रूप में हिंसा का राष्ट्रीयकरण कर दिया। अहमद के अनुसार जन प्रदर्शन, लामबंदी और रक्तपात का यह सिलसिला रथ-यात्रा से शुरू हुआ। इसने भारतीय सांप्रदायिकता को नया रूप देते हुए भारतीय राजनीति में विभिन्न मात्रात्मक गतिशीलता का सूत्रपात किया, जो यूरोपीय सेमिटिक विरोध जैसा था। संघ परिवार का वास्तविक उद्देश्य मुसलमानों को अपने अधीन में रखने तक ही नहीं है बल्कि अपनी कल्पनानुसार भारत के पुनर्निर्माण के लिये पूरी राजसत्ता को हासिल करना है और यह समाज पर ब्राह्मणीय प्रकृति की लीक पर एक सजातीयता लादकर सत्ता हासिल करने के लिये है। वर्तमान समय में संघ परिवार की फासिस्ट योजना को लागू कर पाने की कुछ सीमाएं हैं क्योंकि लोगों को प्रभावित कर पाने के लिये यह मौलिक होने का उतना दिखावा नहीं कर सकता और संघ परिवार की सजातीयता को लोग स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि भारत बहुत ही विविधतापूर्ण देश है।

जर्मनी के जॉन ब्रेमन ने संघ परिवार को नाजियों जैसा बताया है। उन्होंने इस बात को इंगित किया है कि हिन्दुत्व को एक ऐसे सामाजिक तबके से जनसमर्थन मिला जिसे पहले की पीढ़ी की तुलना में बेहतर जीवन मिला है। ... दोनों, जर्मन फासीवाद और हिन्दुत्व इसी में पैदा हुए, और अपने आकार और राजनैतिक वजन में बढ़ रहे इस मिले-जुले मध्यम वर्ग को इसने प्रभावित भी किया। ब्रेमन का कहना है कि छोटे-मोटे फर्क के बावजूद इनमें गहरी समानता है। नाज़ी विचारधारा एक छद्म धार्मिक सिद्धांत के तहत काम करती है जबकि हिन्दुत्व ने अपना सिद्धांत शुद्ध रूप से धार्मिक ही रखा है। हिन्दुत्व की यह धार्मिकता एक व्यापक सामाजिक पुनर्गठन के लिये महज़ एक दिखावा है जबकि अपने मूल रूप में यह बहुत ही भौतिकवादी है। ब्रेमन ने, जिनका जन्म और पालन-पोषण हिटलर के शासन काल में हुआ, बड़ी नजदीकी से हिन्दुत्व की आक्रामकता देखी है क्योंकि उस समय की नाज़ी आक्रामकता का रूप ही तो थी। आंशिक रूप से भी यह हिटलर के शासन काल से कापफी समानता रखता है। यहां पर भी एक सम्प्रदाय विशेष को हिन्दू बहुसंख्यक लोगों या देशद्ध का मुख्य दुश्मन बताया जाता है। नाजी जर्मनी में भी यहूदियों के उत्पीड़न की योजना और अमल पार्टी मशीनरी द्वारा किया गया। हालांकि उनके कुटिल प्रचार ने आगामी हत्याकांड को पूर्ण वैधता दी फिर भी हिन्दुत्व के आक्रामणकारी तत्व मुसलमानों के विरुद्ध हत्याकांड में उनकी भूमिका को छल-कपट से छिपाने का प्रयास बड़ी चतुरता से करते हैं। यह इसलिये संभव है क्योंकि पिता (रा.स्व.संघ) और उनके विभिन्न बेटे-बेटियों के बीच एक चतुरतापूर्ण पारिवारिक काम का विभाजन है। रा.स्व.संघ अपने अनुयायियों को हिन्दुत्व के सिद्धांत का प्रशिक्षण देता है, भा.ज.पा. राजनैतिक शतरंज की चालें चलता है, वि.हि.प. संतों, महंतो और अनिवासी भारतीयों के बीच साम्प्रदायिकता को भावनात्मक रंग देता है, जबकि राष्ट्र सेविका समिति घर के दायरे में रा.स्व.संघ के सिद्धांतों को ले जाने का काम करती है और बजरंग दल इसको सड़क पर हिंसा के रूप में बदलने का काम करता है। यह सब तभी हो पाता है जब इस परिवार के बाकी सभी सदस्य इसके लिये आधार बनाने का काम करते हैं। यह बात स्पष्ट रूप से 1993 में बम्बई और सूरत के दंगों में देखने को मिली। इन दंगों में हिन्दुत्व की ताकतों ने आगजनी के अलावा धर्मनिरपेक्षता के समर्थकों को भी अपना निशाना बनाने का प्रयास किया। लेकिन जर्मनी के यहूदियों की तरह भारतीय मुसलमान बड़े पूंजीपति नहीं थे, इसलिये उनके खिलाफ ‘‘तुष्टिकरण’’ और ‘‘विशेषाधिकारों’’ का यह कहकर प्रचार किया गया कि इनको बहुत सर पर चढ़ा कर रखा गया है। मध्य काल में उनके राजनैतिक प्रभुत्व और हिन्दुओं पर हुए अत्याचारों से इस आक्रामकता को समर्थन मिला। ब्रेमन हिन्दुत्व की आक्रामकता को तीव्रता से महसूस करते हैं: ‘‘अहमदिया हिन्दुओं की तरह उन्हें हाशिये पर डाल दो ताकि वे अपने तक ही सीमित रहें, उन्हें नाजी यूरोप में जुडेनवीर्टर की तरह कोने में घेर लो, वे लोग आधुनिक पूर्ण हिंदूमय भारत में अछूतों की तरह अपनी दूषित बस्तियों में घुटकर रहेंगे।’’

  


हिन्दुत्व

फासिज़्म

 

समानतायें

निचली जातियों की एकजुटता के भय से, उत्तर मंडलकाल में मजबूत हुआ

मजबूत मजदूर आंदोलन के जागरण काल में उदय और मजबूत होना

जन हित के ऊपर ‘राष्ट्र’ हित को प्राधन्य

वही

विस्तारवादी बीज का होना, ‘‘अखंड भारत’’ (पाकिस्तान, म्यामार, बांगलादेश, श्रीलंका सहित) की अवधारणा

विस्तारवादी-पड़ोसी देशों पर इस आधार पर आक्रमण कि पहले कभी वे जर्मन साम्राज्य का हिस्सा थे।

इस देश की दुर्दशा के लिये

देश की दुर्दशा के लिये यहूदियों को जिम्मेदार ठहराना

विगतकाल का उदात्तीकरण

वही

मजदूरों पर दमन (राष्ट्र के लिये उत्पादन), दलितों पर दमन; योग्यता के आधार पर चुने जाने की मांग द्वारा मंडल रिपोर्ट का धूर्तता से विरोध), महिलाओं पर दमन (उन्हें हिन्दू संस्कृति के अधीन रहना होगा)

यहूदियों पर दमन (उनको खत्म कर देना), कम्युनिस्टों मजदूरों पर दमन (उनकी ताकत घटाने के लिए उन पर जानलेवा हमले करना),  महिलाओं पर दमन (उनकी जगह रसोईघर और चर्च में है, वे केवल बच्चों के पालन करें, उन्हें संस्कार दें)

बाबरी मस्जिद के विनाश के बाद उनकी आतंकवादी तथा मानवाधिकार विरोधी गतिविधियां और अतिराष्ट्रवादी उन्माद उजागर हुआ

जन उन्माद पैदा करके अपनी विध्वंसात्मक गतिविधियों को अमल में लाया।

इनका मुख्य जनाधार : शहरी मध्यम वर्ग, छोटे पूंजीपति और धनी किसान, उच्च तथा पिछड़ी जातियों के कुछ हिस्सा

मुख्य सामाजिक आधार : शहरी मध्यम वर्ग तथा भूस्वामी कुलीन वर्ग

 

अंतर

पनपने में लंबा समयः गोभक्त हिंदी भाषी क्षेत्रों के साम्प्रदायीकरण में सफलता। मंडल आयोग के बाद उच्चवर्णियों के ध्रुवीकरण में सफलता

यहूदी विरोधी लहर पर तेजी से पनपा

आठवें दशक के मध्य में मध्यम वर्गों का सामाजिक संकट : महंगाई, बेरोज़गारी, बढ़ती हुई गरीबी

विश्वयुद्ध के बाद का संकट

फासीवाद और संघ परिवार की समरूपता की व्यापक और आलोचनात्मक दृष्टि से व्याख्या करते हुए अचिन वनाइक फासीवाद के सिद्धांत का उपयोग हिन्दू राष्ट्रवाद के सिद्धांत के विश्लेषण के लिए करते हैं। वनाइक महसूस करते हैं कि समूचे राजनैतिक जमघट में विशेषकर तीसरी दुनिया में हिन्दू राष्ट्रवाद को समझने के लिये केवल फासिस्ट उदाहरण नाकाफी हैं। पहले उनकी असमानताओं को लें—संघ परिवार में करिश्माई नेतृत्व का अभाव, खासकर उदारवाद या लोकतंत्र विरोधी और मजदूर वर्ग विरोधी नीति की दिशा में किसी निर्देश का अभाव, इत्यादि। वनाइक कहते हैं कि हालांकि फासिस्ट संगठन समाज के सभी वर्ग के लोगों को आकर्षित कर सकता है लेकिन यह बहुवर्गीय राजनैतिक संगठन या आन्दोलन नहीं है। यह लोकप्रिय सर्वसत्तावाद का भी रूप नहीं है। फासीवादी संगठन सैद्धांतिक और राजनैतिक आधिपत्य इसलिये जीतता है क्योंकि उसकी निर्णायक जीतें गैर सैद्धांतिक क्षेत्रों में ही हासिल होती हैं। उनका जोर आर या पार जैसा निर्णायक होता है। वे तेजी से उभरते हैं लेकिन जब उन्हें सत्ता नहीं मिलती तो वे जल्दी समाप्त भी हो जाते हैं। उत्तर औपनिवेशिक समाज में धार्मिक मूलतत्ववाद या धर्म आधारित राष्ट्रवाद की राजनीति उतनी संभावनायें होने या न होने पर भी कामयाब हो पाती है। जबकि भारत में फासिस्ट राज्य के लिये हिन्दू राष्ट्रवादी होना आवश्यक है लेकिन हिन्दू राष्ट्रवादी राज्य के लिये फासिस्ट होना आवश्यक नहीं।

अपने प्रस्तुतीकरण में वनाइक फासीवाद के वर्ग के आधार पर मौन हैं। यह उन्हें हिन्दू राष्ट्रवाद की विशेषता के अनुरूप वास्तविक चरित्र अपनाने को बाध्य करता है। राष्ट्र का विश्लेषण करते हुए वनाइक बड़ी बारीकी से वर्ग विश्लेषण से हटते हुए भौतिकवादी समझ को अलग रखकर आदर्शवाद की बैसाखी अपना लेते हैं कि-विगत 15 वर्षों में... सांस्कृतिक दंभ और विदेशी द्वेषवाद का नाटकीय उदय हुआ है... । हम चार तरह के रूपों को देख रहे हैं जिनका राजनैतिक एकाकीपन हुआ है... धर्मिक मूलतत्ववाद... हिन्दू राष्ट्रवाद... प्रथम विश्व में प्रजातिवाद... और विदेश, द्वेषवाद का विस्तार। वनाइक इन सभी घटनाओं को वैश्विक बदलाव के संदर्भ में जोड़कर देखते हैं और महसूस करते हैं कि पहचान की राजनीति ने वर्गीय राजनीति को बहुधा मात दे दी है। वे इस आंदोलन, राजनैतिक मूलतत्ववाद की राजनीति को फासीवाद नहीं मानते, बल्कि केवल फासीवादी संभावना मानते हैं। वे इसे भारतीय जातिगत समस्या का रूप मानते हैं जो फासीवाद के मूल का नहीं है।

चर्चा :
कोई जरूरी नहीं कि सामाजिक प्रभाव के क्षेत्र में विभिन्न विचार आपस में बिखरे हों। प्राथमिक स्तर पर संघ परिवार के साम्प्रदायिक स्वभाव का प्रभाव एकदम स्पष्ट है। धार्मिक लगाव का इसका मूलभूत चरित्र आसानी से देखा जा सकता है। संघ परिवार की राजनैतिक जड़ों को आपस में लगातार जोड़कर देखने से इसका सही राजनैतिक चरित्र-चित्रण किया जा सकता है।

फासीवाद से ही हम शुरू करें तो यह समाज के एक बहुत बड़े तबके के द्वारा अस्तित्व में आया और इसके गंभीर परिणाम हुए। फासीवाद के शीर्ष को समझना आवश्यक है। फासिज़्म के बारे में कई स्तर पर विश्लेषण किया जा सकता है। मार्टिन किचेन ने इसके बारे में एक सारगर्भित व्याख्या करने का प्रयास किया है कि यह उदार मूल्यों को नकारने वाला, राष्ट्र की संप्रभुता को मुख्य आवश्यकता के रूप में प्रक्षेपित करने वाला, मर मिटने की भावना के उदात्तीकरण, तानाशाहों की अधिसत्ता राज्य की प्रभुसत्ता के सामने व्यक्तियों के अधिकारों पर नियंत्रण करने वाला अति सनातनी आन्दोलन है। सामाजिक न्यूनता के लिये दोषी व्यक्ति की पहचान करना, सामाजिक मानासिकता को आतंकित करना और मानवाधिकारों को तिलांजलि देना इसकी प्रवृति है। इसके सिद्धांत और सामाजिक आन्दोलन की सामाजिक पृष्ठभूमि संपत्तिधारी वर्ग द्वारा गरीबों के असंतोष को आतंकित करने के लिए है, और यह पृष्ठभूमि है भीषण गरीबी, मुद्रास्फीति, कुपोषण और बेरोजगारी, जहां पर गरीबों का विद्रोह जन्म लेता है। गरीबों के विद्रोह के साथ भूस्वामी वर्ग के एक तबके के अलावा मध्यम वर्ग तथा बेरोजगारों तथा विभिन्न सामाजिक आंदोलनों (तीव्र फासीवाद की स्थिति में संगठित मजदूर वर्ग) का भी साथ होता है। फासीवाद के आक्रमण का मुख्य लक्ष्य मानवाधिकार होता है। (जर्मन फासीवाद के मामले में ट्रेड यूनियनें) और इसका शीर्ष होता है भयभीत मध्यम वर्ग। यूरोप में फासीवाद एक प्रलय के रूप में आया जिसने थोड़े समय में ही समाज को जकड़ लिया।

संघ परिवार को दशकों पहले सैद्धांतिक आधार मिला। तभी से उसका सैद्धांतिक गठन और मजबूती का काम जारी है। शाखाओं के विशाल जाल और राजसत्ता के प्रशासकीय तंत्र में मौजूद उनके अनुयायियों के बावजूद वे 80 के दशक तक वे एक सामाजिक ताकत नहीं थे। 80 के दशक में पिछड़ी जातियों में अशांति और आंदोलन का माहौल रहा, जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप सारे देश में दलित विरोधी दंगे हुए। 1980 में गुजरात में हुए दलित विरोधी दंगे इसका स्पष्ट उदाहरण है। धनी किसान वर्ग का गठन और छोटे उद्योगपति एवं शहरी मध्यम वर्ग के गठन की उस दोहरी प्रक्रिया ने 80 के दशक में अपनी मौजूदगी जताई। इन तबकों का संघ परिवार के आंदोलन में सहभाग कई कारणों से उभरा। इसका एक मुख्य कारण था मंडल आयोग, जिसने फासीवाद के मुख्य समर्थकों (धनी किसान, छोटे उद्योगपति और मध्यम वर्ग के कुछ तबकों) को साथ-साथ जोड़ा। इन सभी को निचली जातियों तथा गरीबों के संघर्ष से खतरा था इसलिये वे संघ परिवार के साथ जुड़ गये।

संघ परिवार के लिये समाज की निचली जातियों और गरीब तबके पर खुलकर आक्रमण कर पाना संभव नहीं था। यहां पर एक शातिर चालाकी की गयी। इसके शीर्ष फासीवाद समर्थकों को अपने विशेषाधिकारों और सामाजिक स्थिति की सुरक्षा का विकृत भय था और उनका वास्तविक लक्ष्य था दलितों, गरीबों, मजदूरों और महिलाओं को उनकी ‘जगह’ बताना और ‘जैसे थे’ की परिस्थिति को बरकरार रखना (और यह समाज के उदार मूल्यों के रहते खुले आम कर पाना संभव नहीं था)। पिछले कुछ दशकों से आरक्षण को घटिया ठहराने के लिये और आरक्षण से लाभान्वित लोगों को नीचा दिखाने के लिये एक सुव्यवस्थित अभियान शुरू किया गया। इसके अलावा वे गरीब किसानों तथा मजदूरों के अधिकारों का समर्थन करने वालों से नफरत करते हैं। खास तौर पर इस बीच उभर रहे छोटे उद्योगपतियों के कारण मजदूर उनकी नफरत का केंद्र बन रहे हैं। महिलाओं के अधिकारों को लेकर होने वाले आंदोलन के कारण उच्च जाति के पुरुषों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा है। मोटे तौर पर यह तो कहा ही जा सकता है समाज के इस तबके में असुरक्षा की भावना भर गई है इस जटिल वर्ग/जाति लिंग के दृश्य में मध्यम वर्ग और मोटे तौर पर उच्च जाति के हिन्दू पुरुष किसी समर्थक राजनैतिक आंदोलन, किसी सिद्धांत की तलाश में थे जो इन तबकों का दमन कर सकें, क्योंकि ये तबके उनकी सामाजिक और राजनैतिक ताकत के लिये खतरा बन रहे थे, लेकिन पूरे विश्वभर में उदार नीतियों के प्रभाव और विकास के कारण यह दमन संभव नहीं है। जातिविहीन समाज, लैंगिक समानता और मानवाधिकारों के प्रति केवल दिखावटी बातों से काम नहीं चल सकता। उच्च/जति के लोग मानवाधिकारों से नफरत करते हैं फिर भी या तो उन्हें (अ) ऐसे संघर्ष पैदा कर सकने वाले हालात पर से लोगों का ध्यान हटाना या (ब) वैकल्पिक मूल्यों वाली व्यवस्था का प्रचार करना था जो इनकी स्थिति का सीधे-सीधे विरोध न करें और जो इन दावों की तीव्रता को निष्क्रिय करने के लिये खुद के फायदे वाले सिद्धांतों का प्रचार करें। हिन्दुत्व इस काम में एकदम सटीक बैठता है। एक तरफ यह विगत इतिहास को लेकर हताश और अभागे मुसलमानों के रूप में काल्पनिक दुश्मन का निर्माण करता है, जिससे नफरत की जाए और बार-बार हिंसक तरीके से लड़कर उन्हें सिमटकर रहने के लिये मजबूर कर दिया जाए। इस प्रक्रिया को बहुत ही तीव्र उन्मादपूर्ण तरीके से किया जाता है और इस आक्रमकता के सामने शोषित तबके की अन्य वास्तविक संघर्षशील आवाजें दब जाती हैं। दुश्मन (मुसलमान) के चित्रण को ही इतिहास बनाकर जन चेतना को दूषित करते हुए इसे ऐसे स्तर तक ले जाना जहां पर शत्रु-विरोध को निचली जाति के शूद्रों तक विस्तारित किया जा सके। यह सारा प्रयास इसलिये है कि मुसलमानों और निचली जातियों में नफरत पैदा की जा सके और इस उद्देश्य से कि एक को दूसरे से लड़ाया जा सके। ‘‘सामाजिक प्रक्षोभ’’ की इस प्रक्रिया से पूरे समाज में इस कदर आतंक का निर्माण किया गया कि वह उदार नीति तथा उसके संग शोषित वर्ग के संघर्ष को भी दमन करने का एक सर्वोत्तम तरीका बन गया।

हिन्दुत्व की ‘‘योग्यता’’ दूसरे स्तर पर भी है कि शेष सभी (मुसलमान/ईसाई) को छोड़कर बाकी बचे लोगों को हिन्दू माना गया है। उन्हें सजातीय हिन्दू समाज के रूप में चित्रित किया गया है जिसमें उन्हें समाज के लिये निर्धरित धर्म का पालन करना होगा। वे वर्तमान यथावत समाज के समर्थन में सजातीयता और सद्भावना की अवधरणा का प्रचार इसलिये करते हैं क्योंकि इससे मौजूदा शक्ति-समीकरण को लाभ मिलता है। यह प्रमाणित किया जाता है कि यह वर्ण विहीन समाज है, जातिगत राजनीति समाज को विभाजित करती है और ऐसे समय पर जब जातिगत राजनीति का लाभ निम्न जातियों को मिल सकता है, यह बताया जाता है पिछड़ी जाति वालों को जाति की मानसिकता से ऊपर उठना चाहिए। औरतों को माता, बहन, पत्नि और बेटी का ‘सम्मानपूर्वक’ दर्जा दिया गया है जबकि ये रिश्ते पितृप्रधान समाज में बुरी तरह शोषित हैं। मजदूरों को राष्ट्र के लिये उत्पादन का काम करना होगा यानी मौजूदा शोषण और अन्यायपूर्ण कानून का समर्थन, वरना देश का नुकसान होगा। राष्ट्र निर्माण में शोषण करने के लिये मालिकों के अबाधित अधिकार को मौन समर्थन प्राप्त है।

इस तरह हिन्दुत्व के राजनैतिक निर्माण में ऊँची जाति के पुरुषों के हितों में इससे बेहतर राजनैतिक कार्यक्रम नहीं हो सकता। यूरोपीय फासीवाद एक प्रलय जैसा था जबकि भारतीय फासीवाद पुराना और धीमे चलने वाला है। यह आवेगों में आता है और हर बार हसकी उत्तेजना खुद की एक व्यापक एकजुटता छोड़ जाती है। हर बार इसकी आक्रमकता ‘‘दूसरों’’ को असहाय और सीमित कर देती है। इस तरह का सीमित करना ब्राह्मणीय वर्चस्व और हिन्दुत्व के आधिपत्य के लिये आवश्यक है। ब्राह्मणीय वर्चस्व के लिये मुसलमानों को सिमटकर रहने के लिये मजबूर कर देना आवश्यक है, जैसा सदियों पहले अछूतों के बारे में हुआ था।

वनाइक की ‘‘न्यूनतम फासीवाद’’ की शर्तों के अनुसार अपने सार में हिन्दुत्व फासिज्म है, इसका शीर्ष और वर्ग चरित्र इस आंदोलन के चरित्र को तय करता है भले ही वह विरोध में हो या सत्ता में हो। फासीवाद का न्यून उच्च मध्यम वर्ग है। हिन्दुत्व का शीर्ष धनी किसान, छोटा उद्योगपति और मिलाजुला मध्यमवर्गीय तबका (नौकरशाह, व्यावसायिक, व्यापारी इत्यादि) होता है जो बड़ी पूंजी से जुड़ा होता है। इसकी बाह्य अभिव्यक्ति स्थान और समय के अनुसार बदल सकती है। फासीवाद और हिन्दुत्व का सामाजिक आधार एक ही है। हिन्दुत्व कम प्रखर और पुराना है जबकि फासीवाद जाति मुक्त और उत्तर औपनिवेशिक समाज की प्रक्रिया है।

यूरोपीय फासीवाद की तुलना में हिन्दुत्व में कहाँ अलग है? सामाजिक गतिशीलता के बदलाव के दशकों पहले से ही रा.स्व.संघ के सिद्धांत और सदस्यता के आधार पर हिन्दुत्व सामाजिक सत्ता के लिये खतरा बन चुका था। इस दौरान कई लोग व्यक्तिगत रूप से इस राजनीति की तरफ झुक गये। दूसरी तरफ फासीवाद के ही परिवर्तित रूप में हिन्दुत्व ने इस तबके की सामाजिक धारणा को अधिक निरन्तरता और नियोजित तरीके से अपनी तरफ मोड़ लिया। इसने अपने समर्पित अनुयायियों को सेना, प्रशासन, पुलिस, प्रसार माध्यम और शिक्षा के क्षेत्र में दशकों पहले से ही घुसाना शुरू कर दिया ताकि इस सामाजिक क्षेत्र में हिन्दुत्व के आगमन के लिये एक आसान रास्ता बन सके।

तीसरे, संभवतः उपरोक्त कारणों से, यूरोपीय फासीवाद की तरह हिन्दुत्व ने ‘‘समाजवाद के मूल सिद्धांत के आडम्बर’’ का प्रयोग नहीं किया। मूल सिद्धांत के दिखावे का न होना हिन्दुत्व की ताकत है क्योंकि सत्ता पाने के बाद छोटे क्षेत्रों, राज्य या राष्ट्र में मूल सामाजिक परिवर्तन को लागू करने की जरूरत नहीं रहेगी। एक तरह से हिन्दुत्व फासीवाद का अधिक संगठित स्वरूप है क्योंकि इसके अपने कार्यक्रम को लागू करने के लिये मूलतत्व के आडम्बर का सहारा नहीं लेना पडे़गा। इस देसी फासीवाद की एक और सूक्ष्म समस्या है। अकथित उत्तर-दक्षिण विभाजन। हिन्दुत्व की अवधरणा मुख्य रूप से उत्तर भारतीय उच्च वर्णीय पुरुषों में व्याप्त है। इस नेतृत्व को अहिन्दी भाषी क्षेत्र में सफलता हासिल करना अभी बाकी है। धनी किसानों और हिन्दुत्व के दूसरे बढ़ते हुए सामाजिक आधार के चलते, अहिन्दी भाषी क्षेत्र में भी इस आंदोलन को पैर जमाने में कुछ सफलता मिलने की उम्मीद है। लेकिन संभवतः इसका विस्तार बहुत छोटा ही रहेगा।

हिन्दुत्व का लक्ष्य
हिन्दू राष्ट्र धर्मिक राष्ट्र नहीं है, यह समाज के सभी तबकों पर पूर्व-आधुनिक सामाजिक श्रेणीबद्धता लादने वाली एक ‘‘आधुनिक’’ प्रक्रिया है। यह समाज के एक तबके का लक्ष्य है जिसे विगत कुछ दशकों से हो रही विकास प्रक्रिया का लाभ मिलता रहा है। हिन्दुत्व समाज के उस तबके का लक्ष्य था जिसे स्वतंत्रपूर्व काल में हो रहे सामाजिक परिवर्तन से खतरा हो रहा था और यह तबका (जमींदार-ब्राह्मण) यथावत स्थिति का समर्थक और आर्थिक तथा राजनैतिक स्तर पर अंग्रेजों का सहयोगी था। विगत दो दशकों से समाज को यथावत रखने वालों के विरुद्ध लड़ाई का नारा देने वाले महिलाओं, मजदूरों, दलितों और आदिवासियों के तबके को ‘हिन्दू राष्ट्र’ द्वारा निगल लिये जाने का खतरा बना हुआ है। यह समाज के उस तबके का आक्रमण है जिसे लघु उद्योगपतियों, छोटे व्यावसायिकों और ‘‘हरित-क्रांति’’ वाले किसानों द्वारा व्यापक एवं अधिकतम लाभ मिला है। भारतीय राष्ट्रवाद एक सकारात्मक अवधरणा है जिसके अंतर्गत विभिन्न धर्म, विभिन्न जातियताओं तथा संस्कृतियों का समावेश है जो विश्व अर्थव्यवस्था तथा उभरते वैश्वीकरण का अभिन्न अंग है।

इस आंदोलन की धीमी गति इसकी मजबूती है। एक तरफ यह सामाजिक स्थिति को काबू में रख सकती है तो दूसरी तरफ इसकी प्रतिक्रिया को भी बाहर आने दे सकती है। दलितों, मजदूरों, महिलाओं और मध्यम वर्ग में धर्मनिरपेक्ष तबकों का भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति सकारात्मक रुख हिन्दुत्व की राह में बड़ी बाध है। बडे़ पूंजीपतियों और प्रमुख औद्योगिक घरानों का संघ परिवार से अनोखा रिश्ता है। वे जब भी कभी खुद के अस्तित्व के संकट में फंस जाते हैं तब संघ परिवार से अनोखा रिश्ता है। वे जब भी कभी खुद के अस्तित्व के संकट में फंस जाते हैं तब संघ परिवार द्वारा निर्मित सामाजिक आतंक उन्हें बड़ी चालाकी से उदार नीतियों के बंधन से बाहर कर देता है। संघ परिवार का रुढ़िवादी आंदोलन पूंजीपतियों की जरूरतों को सफलतापूर्वक अबाधित रूप से पूरी करता है। इस तरह यह पुराना, लचीला फासीवाद अलग-अलग अस्तित्व के रूप में कभी (गरीबों और अल्पसंख्यकों को) आतंकित करके, तो कभी (पड़ोसी दुश्मन देशों के प्रति) आक्रामक बन कर तो कभी खुद के अंतर्विरोध के चलते चरमराकर ढह जाने से संघ परिवार के जरिये व्यक्त होता है। लेकिन यह गति जारी रहती है। हिन्दुत्व की सामाजिक जड़ें शोषक पूंजीपति शासन के समर्थन और निरंतरता के लिए बनी हैं, जो अपने लक्ष्य के प्रति आगे बढ़ते हुए मध्यवर्गीय आकांक्षाओं को पूरा करती है।

हिन्दुत्व आक्रामकता को मूलतत्ववादी अवधारणा से भी समर्थन मिलता है। वह पुराने विचारों को छांट कर वर्तमान पर लादता है। वह धर्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करता है, हिन्दू राजाओं के पुराने ‘‘सुनहरे युगों’’ का बखान करता है, महिलाओं को पितृसत्तात्मक नियंत्रण में रख कर उनके जीवन, पहनावे को निर्धारित करता है। वह विभिन्न धार्मिक समुदायों, व्यक्तियों को अपने साथ मिलाकर अपना राजनैतिक आधार मजबूत करता है और राष्ट्र-उन्माद पैदा करने के लिये वह धर्म का बहुत प्रभावशाली तरीके से इस्तेमाल करता है।

इस समय परिस्थिति काफी संतुलित है। इसकी आक्रामकता ने उत्तर में अच्छा खासा प्रभाव पैदा किया है लेकिन दक्षिण और पूर्व में तुलनात्मक रूप से इसका उन्मादी प्रभाव नहीं पड़ा है। बिखरे होने के बावजूद दलितों की प्रतिक्रिया निश्चित रुप से हिन्दुत्व की रथयात्रा का रोड़ा बनी हुई है।

संघ परिवार के स्पष्ट लक्ष्य मुसलमान मजबूरी के बंधन में बंधे हैं। एक तरफ वे हिन्दुत्व की आक्रामकता से इस कदर टूट चुके हैं कि अब वे चुप नहीं बैठेंगे। दूसरे वे अपने ही पिछड़ेपन के कारण उनकी रहनुमाई का दावा करने वाले मुस्लिम दकियानूसी तथा धार्मिक नेताओं की गिरफ्त में जकड़े हुए हैं। वे हिन्दू फासीवाद और मुस्लिम मूलतत्ववाद की दोहरी मार झेल रहे हैं। ‘‘गरीब मुसलमानों’’ द्वारा झेली गयी यातनायें इतनी अधिक हैं कि बहुत संभव है कि वे लोग अपने दकियानूसी नेतृत्व को दरकिनार कर, बाहर आने के लिये मजबूर हो जाएं और संघ परिवार के संकट का खुलकर मुकाबला करें और उनका यह रुख निश्चित रूप से ‘‘हिन्दुत्व के त्रिशूल’’ की बाध बनेगा। संघ परिवार इस समस्या से किस तरह निबटता है और अपने नये ‘‘नरम रुख’’ द्वारा इस बाध से किस तरह निजात पाता है यह अभी देखना बाकी है।

 

हिंदू राष्ट्र और धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत की तुलना

हिन्दू राष्ट्र धर्म

धर्म निरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत

यह कल्पना हिंदू महासभा और रा. स्वं. संघ को, जो स्वतंत्रता आंदोलन का भाग नहीं थे, लक्ष्य के रूप में सामने आई।

यह कल्पना स्वतंत्रता संग्राम के दौरान स्वतंत्रता के आंदोलन में हिस्सा लेने वालों (कांग्रेस, भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी, सुभाष चंद्र बोस, डॉ. अम्बेडकर और कम्युनिस्ट पार्टी के लक्ष्य के रूप में सामने आई)

शुरुआत में इस कल्पना को ब्राह्मणों, बनिया और जमींदारों का समर्थन मिला।

इसके मुख्य समर्थक थे गरीब किसान, मजदूर, दलित और आधुनिक उद्योगपति।

इस कल्पना को हिंदुत्व के नेताओं, सावरकर-गोलवलकर ने अंतिम स्वरूप दिया।

इस कल्पना का सर्वमान्य जनता द्वारा चुनी हुई संविधानसभा द्वारा निर्मित भारतीय संविधान में मुख्य स्थान है।

यह राष्ट्रवाद नस्ल, धर्म और दूसरों की नस्ल या धर्म की घृणा पर आधारित है।

देश की विविधता और भौगोलिक-राजनीतिक बहुलता का, प्रेम के आधार पर जोड़ने पर आधारित है।

उच्चभ्रू लोगों के लिए विशेष स्थान का प्रावधान।

कानूनी तौर पर सबको समान अधिकार।

जाति वर्ग और लिंग भेद की ‘जैसे हैं’ की हालत को मजबूत है।

शोषित-दलित समूहों के अधिकारों के संघर्ष की वैधता को मंजूर करता है।

समाज का नेतृत्व हिंदू पंडित-आचार्य, महंत और खुद को हिंदुओं का प्रतिनिधि घोषित करने वाले लोग करेंगे।

सामाजिक जीवन लोगों, समूहों के अंतलिन से तय होगा।

पूरे समाज को उच्चभ्रू वर्ग के मूल्य संस्कृति अपनानी होगी।

बहुलता का स्वागत, अनेक विचारों के लिये स्थान।

वोट देने का अधिकार स्वयंघोषित हिंदुओं धर्म के नेताओं और प्रतिनिधियों द्वारा तय किया जाएगा, यानी संघ परिवार द्वारा।

सबको वोट देने का अधिकार। जाति, लिंग-भेद के बगैर सबको समान नागरिक अधिकार।

ब्राह्मणीय मूल्य, उच्चभ्रू सांस्कृतिक मूल्य समाज के अधिकृत, मुख्यधारा के मूल्य होंगे।

भारतीय संविधार सामाजिक और राजनीतिक जीवन का मार्गदर्शन करेगा।

सबको हिंदू (ब्राह्मणीय) मूल्य और संस्कृति के अनुसार रहना होगा।

समाज को अपनी-अपनी संस्कृति के अनुसार जीने की स्वतंत्रता होगी।

यह कल्पना मुसोलिनी के इटली, हिटलर के जर्मनी, खोमेनी के ईरान और तालिबान के अफगानिस्तान से मिलती है।

समानता, स्वतंत्रता और बंधुता के मूल्य और उदारमतवादी समाज।

हिंदू उच्चभ्रू और अन्य समाहित उच्चभ्रू का देश में वर्चस्व होगा और वे दूसरों का मार्गदर्शन करेंगे।

सब लोग राजनीतिक, सामाजिक प्रक्रिया में समान योगदान देंगे।

 

लोकतांत्रिक भारत या हिंदूराष्ट्र-राम पुनियानी से साभार  

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