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सांप्रदायिकता

सावरकर के स्वयंभू वारिस !

सुभाष गाताडे

मध्यप्रदेश सरकार के स्वराज्य संस्थान द्वारा ‘आज़ादी के दुर्लभ तराने’ में पिछले दिनों शामिल वीर सावरकर के गीतों को लेकर राज्य में सत्तासीन भाजपा एवं विपक्ष में बैठी कांग्रेस में वाकयुद्ध का एक दौर चल चुका है। कांग्रेस ने सावरकर जैसी विवादास्पद शख्सियत—जिन्होंने जेल से रिहाई के लिए अंग्रेजों के सामने माफीनामा लिख कर देने में या 1942 के दिनों में अंग्रेजों की फौज में हिन्दू युवाओं की भर्ती के लिए मुहिम चलाने में गुरेज नहीं किया था—के महिमामण्डन का विरोध किया है, वहीं भाजपा ने 1857 के संग्र्र्राम को ‘प्रथम स्वतंत्रता समर’ कहने वाले सावरकर के इस अपमान के लिए कांग्रेस को लताड़ा है।

साफ है कि सूबे में कांग्रेस की अपनी कमजोर सांगठनिक स्थिति या उसमें जारी आन्तरिक कलह या विधानसभा में भाजपा को प्राप्त पूर्ण बहुमत की पृष्ठभूमि के चलते इस बात की विशेष उम्मीद तो नहीं की जा सकती कि इस मसले पर कोई व्यापक सरगर्मी—सड़क पर या सदन में—मुमकिन हो। लेकिन संघ-भाजपा द्वारा सावरकर की पुनर्खोज के अभियान के इस कदम ने नये सिरे से इन दोनों के आपसी रिश्तों पर ध्यान केन्द्रित किया है, जिस पर अब तक बहुत कम बात हुई है।

वैसे यह तो सभी जानते हैं कि यह कोई पहला मौका नहीं है जबकि संघ-भाजपा ने अपने आप को सावरकर का सच्चा अनुयायी या वारिस घोषित करने की कोशिश की हो। लोगों को याद होगा कि केन्द्र में भाजपा की अगुवाई वाली गठबन्धन की हुकूमत के दिनों में भी यह मुद्दा जेरेबहस था, जिन दिनों संसद में सावरकर की प्रतिमा के अनावरण को लेकर विवाद गरमाया था। केन्द्र की सत्ता से बेदखली के बाद अन्दमान जेल में लगी उनके नाम की पट्टिका हटाने को लेकर भी काफी हंगामा हुआ था।

हालांकि इस तथ्य को बहुत कम लोग जानते हैं कि सावरकर के बारे में उभरा संघ-भाजपा का प्रेम बहुत हाल की बात है और वह सियासी कारणों से उभरा है। अगर ऐसा नहीं होता तो 1998 के पहले पांच साल जब वह सूबा महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ सत्ता में साझेदार थी, उन दिनों सावरकर की एक अदद तस्वीर विधानसभा में लगवा सकती थी, लेकिन इतना भी काम उसने नहीं किया।

संघ-सावरकर के अन्तर्सम्बन्ध को लेकर बहुत मारक टिप्पणी हिन्दू महासभा के नेता और सावरकर के भतीजे विक्रम सावरकर ने कुछ समय पहले पेश की थी। उनके मुताबिक उन्हें इस बात से आश्चर्य नहीं होता कि ‘सावरकर में भाजपा की रुचि नहीं है’। उनके मुताबिक ‘हम अच्छी तरह जानते हैं कि भाजपा और संघ ने सावरकर के दर्शन को कभी पसन्द नहीं किया।’’ उपरोक्त रिपोर्ट के मुताबिक विक्रम सावरकर का यह भी कहना था कि, ‘‘सावरकर के प्रति भाजपा का अचानक उमड़ा प्रेम एक फरेब है। वह दरअसल महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में मतदाताओं को लुभाने की चाल है।’’
(सावरकर नेफ्यू हिट्स आउट एट बीजेपी, इण्डियन एक्स्प्रेस, 30 अगस्त 2004)

अगर आप संघ या हिन्दू महासभा के इतिहास पर या सावरकर-हेडगेवार-गोलवलकर की जीवनियों पर भी नज़र डालेंगे तो पाएंगे कि संघ के नेताओं की सावरकर से यह दूरी उन्हीं दिनों की पैदाइश है जब औपनिवेशिक काल में दोनों की ओर से एक ही तबके को अर्थात हिन्दुओं को अपने पक्ष में करने की कोशिशें चल रही थी। इतिहास इस बात का गवाह है कि सावरकर चाहते थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनके राजनीतिक संगठन हिन्दू महासभा की युवा शाखा बन जाये, लेकिन हेडगेवार-गोलवलकर ने इस बात से इन्कार किया था; जिसकी वजह से सावरकर ने ‘रामसेना’ का निर्माण किया था।

गोलवलकर तथा सावरकर के आपसी सम्बन्ध किस हद तक बाद में भी असहज थे, इसका अन्दाजा 1958 में गोलवलकर के दिये एक वक्तव्य से भी लगता है, जो ‘श्री गुरूजी समग्र’ शीर्षक से संकलित रचनाओं के खंड 10 में ‘हिन्दू महासभा का असमवायी दृष्टिकोण’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है (पेज 258)। अम्बाला में आयोजित भारतीय जनसंघ के अधिवेशन में स्वागत समिति का सभापतित्व स्वीकारने पर जब हिन्दू महासभा के पुराने कार्यकर्ता कैप्टन केशवचंद्र को हिन्दू महासभा से निष्कासित किया गया था, उस पर प्रतिक्रिया देते हुए गोलवलकर ने लिखा है कि यह ‘लोगों की एकता को छिन्न-विछिन्न करने वाले लोग, राजनीतिक निषेधता एवं राजनीतिक अस्पृश्यता का एक और प्रसंग है।’ उन्होंने आगे जोड़ा था ‘यह अप्रजातांत्रिक भी है। इसमें से भी राजतंत्रीय निरंकुशता अथवा हृदयविहीन दलीय तानाशाही की दुर्गंध आती है। यह पूर्णतः अहिन्दू दृष्टिकोण है।’

संघ तथा सावरकर के आपसी रिश्तों में सब कुछ कतई सामान्य नहीं था, इसका अन्दाज़ा ‘श्री गुरूजी समग्र’ शीर्षक से संघ परिवार द्वारा प्रकाशित गोलवलकर की चुनी हुई रचनाओं से भी लगता है, जिसमें वे संघ शिक्षा वर्ग के वार्षिक आयोजन के अपने भाषण में सावरकर को श्रद्धांजलि देने की औपचारिकता भी नहीं निभाते। (श्री गुरूजी समग्र, सुरूचि प्रकाशन, युगाब्द 5106) सावरकर के बारे में प्रदर्शित किये जाते रहे, इस सुविधाजनक मौन की ही निशानी है कि संघ से जुड़े प्रकाशनों द्वारा प्रकाशित गोलवलकर की जीवनियां तक सावरकर के बारे में लगभग मौन रहती हैं। चं. प. भिशीकर, जिनके द्वारा लिखी हेडगेवार की जीवनी भी आधिकारिक मानी जाती है, वह भी ‘नवयुग प्रवर्तक श्री गुरुजी’ शीर्षक गोलवलकर की जीवनी (लोकहित प्रकाशन, 2003, लखनऊ) में गांधी हत्या के आरोप में गोलवलकर-सावरकर आदि की हुई गिरफ्तारियां जैसे प्रसंगों के सिलसिले में सावरकर के सन्दर्भ को हटा ही देते हैं।

वैसे सावरकर के इन स्वयंभू वारिसों को अगर यह पता चले कि सावरकर ने जीते जी इन सबके आका हेडगेवार-गोलवलकर और उनकी लम्बी चौड़ी स्वयंसेवक मण्डली को उनकी कायरता, बुजदिली और अकर्मण्यता के लिये किस तरह बार-बार लताड़ा था, और संघ के नेताओं ने उन्हें क्या कहा था तो निश्चित तौर पर वह चकरा जाएंगे। उदाहरण के तौर पर, सावरकर ने कहा था ‘‘संघ के स्वयंसेवक का मृत्युलेख होगा, वह पैदा हुआ, वह संघ में शामिल हुआ और कुछ हासिल किये बिना मर गया । (डी. वी. केलकर, ‘‘द आर एस एस’’ इकोनोमिक वीकली (4 फरवरी 1950: 132) निश्चित ही गोलवलकर तथा हिन्दुत्व के अन्य तमाम नेताओं ने उसी सुर में सावरकर पर भी जवाबी हमले भी किये थे। संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर ने तो सावरकर के विचारों के लिए उन्हें कभी ‘भेष बदले हुए मुसलमान’ के तौर पर भी सम्बोधित किया था।

वैसे आज नहीं तो कल ‘परिवारजन’ जब अपने अतीत पर बेबाकी से मंथन करेंगे तो उन्हें न केवल इस सवाल से जूझना पड़ेगा कि आज़ादी के आन्दोलन के दौरान संघ को उससे दूर रखने के हेडगेवार-गोलवलकर के फैसले के बारे में वह क्या सोचते हैं? आज़ाद हिन्दोस्तां को एक नया संविधान प्रदान करने की कोशिशों का विरोध करते हुए ‘मनुस्मृति’ को ही संविधान पर लागू किया जाये, इस किस्म के गोलवलकर के प्रस्ताव के बारे में वह क्या राय बनाते हैं।

लेकिन फौरी तौर पर उन्हें इस सवाल का जवाब देना होगा कि उनके नये आराध्य सावरकर ने 1942 में, जबकि समूचे हिन्दोस्तां की अवाम बर्तानवी हुक्मरानों के खिलाफ खड़ी थी, उन दिनों ब्रिटिश फौज में हिन्दुओं को भर्ती करने की जो मुहिम चलायी थी, क्या वह उचित थी। और सबसे बढ़ कर जिस मुस्लिम लीग के खिलाफ रात-दिन सावरकर जहर उगलते रहे, उसी के साथ 40 के दशक की शुरुआत में बंगाल में ‘हिन्दू महासभा’ की साझा सरकार चलाने में भी उन्हें किसी तरह के द्वंद से गुजरना नहीं पड़ा था।

उम्मीद की जानी चाहिए कि ‘प्रियतम हिन्दुस्तान’ और ‘पहला फूल खिला’ इन दो सीडी में शामिल सावरकर की 16 कविताओं को सुनते हुए उन्हें इन सवालों का भी ध्यान रहेगा !

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