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सांप्रदायिकता

क्या केसरिया पलटन लौटेगी?

सुभाष गाताडे

“भाजपा जल्द ही अपनी पुरानी रौनक में लौटेगी, ‘शव’ से ‘शिव’ की तरह उसका यह रूपान्तरण होगा।”
—मोहन भागवत, संघ के सुप्रीमो
दिल्ली में अपने संवाददाता सम्मेलन में

आधुनिक जमाने के जनतंत्र की यात्रा में ऐसे मौके कम ही आते हैं जब कोई सियासी पार्टी धीमी गति से चलने वाली फिल्म की तरह अन्तःस्फोट का शिकार होती दिखती है। भारतीय जनता पार्टी, जो महज कुछ माह पहले अपने आप को सत्ता पाने की प्रबल दावेदार कह रही थी, फिलवक्त़ ऐसे ही दौर से गुजरती दिख रही है। दिल्ली में काबिज होने की कोशिश में उसे लगातार दो बार जिस तरह मुंह की खानी पड़ी है—चाहे वर्ष 2004 का चुनाव रहा हो या 2009 का—तथा पार्टी के अन्दर जो गुटबाजी चरम पर दिखती है, इनके चलते अपने आप को ‘अलग ढंग की पार्टी’ होने के उसके तमाम दावे काफूर होते दिख रहे हैं।

अपने 29 साला इतिहास में उसके सामने खड़े इस अभूतपूर्व किस्म के संकट का ही नतीजा था कि पिछले दिनों उसके मातृसंगठन—राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ—के अग्रणी नेताओं ने हस्तक्षेप करके मामलों को सुलझाने की कोशिश की। अपने आप को हमेशा अपने आनुषंगिक संगठनों का सलाहकार होने का दावा करने वाले संघ के नेताओं ने जो फॉर्मूला पेश किया है, उसके अन्तर्गत भाजपा में नयी पीढ़ी के हाथों में नेतृत्व को सौंपा जाएगा, जिसके लिए पहले आडवाणी तथा राजनाथ की ‘सम्मानजनक’ विदाई होगी। आडवाणी की वरिष्ठता का ध्यान रखते हुए उन्हें कहा जा रहा है कि नेतृत्व के इस पीढ़ीगत संक्रमण को वह सुगम बनाएं।

इसे संघ के हस्तक्षेप का नतीजा कहें या पार्टी के नेतृत्व में आ रही परिपक्वता का परिणाम मानें कि इन दिनों विभिन्न खेमों, गुटों ने अपनी-अपनी तलवारें म्यान की हैं और अपनी एकता का चित्र पेश कर रहे हैं। लेकिन भाजपा के हाल के इतिहास पर बारीकी से नज़र रखने वाले आसानी से बता सकते हैं कि आपसी सद्भाव प्रदर्शन का दौर अधिक नहीं चलने वाला है। स्पष्ट है कि वाजपेयी-आडवाणी के नेपथ्य में जाने के साथ ही अब तक दूसरी कतार में रहे नेताओं में से कोई भी पार्टी में पद पाने के संघर्ष में पीछे नहीं रहना चाहता।

यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ऐसी पार्टी का क्या भविष्य है? क्या वह ‘राख’ से उठ सकेगी तथा जल्द ही ‘शव’ से ‘शिव’ की स्थिति में पहुंचेगी जैसा कि संघ के नवनियुक्त सुप्रीमो मोहन भागवत ने दावा किया था या वह भारतीय जनसंघ की स्थापना के दिनों की गति को नए सिरे से प्राप्त कर लेगी, जब वह सियासत में हाशिये पर पड़ी थी !

निश्चित ही जब तक हम उसकी दुर्दशा में अन्तर्निहित कारणों की पड़ताल नहीं करते, विकसित होती स्थिति का यथार्थपरक आकलन करना हमारे लिए असम्भव है।

एक साधारण व्यक्ति भी बता सकता है कि भाजपा के संकट की जड़ें काफी गहरी हैं और बहुविध हैं। यह जुदा बात है कि अधिकतर विश्लेषकों ने पार्टी को चुनावों में मिली शिकस्त या दूसरी कतार के नेताओं में शुरू ‘खुल्ला खेल फरूखाबादी’ पर अब तक अपने आप को केन्द्रित किया है। अगर पीछे मुड़ कर देखें तो यह अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि पार्टी इतनी दुर्दशा की स्थिति में नहीं पहुंचती अगर पार्टी का नेतृत्व तथा उसके द्वारा चुनावों में प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तुत लालकृष्ण आडवाणी, इन्होंने गहरी आत्मालोचना करने का साहस दिखाया होता या हार के लिए नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दिया होता! गौरतलब था कि पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व पर—जिसने समूचे चुनावी अभियान की अगुआई की थी—कोई आंच नहीं आयी, बल्कि उसमें शामिल कइयों को विभिन्न पदों से नवाजा भी गया; जबकि राज्य स्तर के नेतृत्व को पार्टी की दुर्दशा के लिए दण्डित किया जाने लगा। विधायकों के बीच बहुमत होते हुए भी जिस तरह उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवनचन्द्र खंडूड़ी को पद छोड़ने के लिए मजबूर किया गया, वह सबके सामने था। इन दिनों केन्द्रीय नेतृत्व राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री रही ‘वसुन्धरा राजे’ पर दबाव डालने लगा है कि वह भी हार की जिम्मेदारी मानते हुए इस्तीफा दे दें।

लोकसभा के लिए सम्पन्न चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करते हुए ठीक ही कहा गया था कि किस तरह लगातार उसके वोटों के प्रतिशत में गिरावट आ रही है तथा वह नयी सामाजिक शक्तियों को—खासकर युवाओं तथा मध्यम वर्ग को— अपनी तरफ आकर्षित करने में पिछड़ती दिख रही है। इस बात को भी नोट किया गया था कि वह अन्य राजनीतिक शक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करने लायक एजेण्डा पेश करने में भी असफल रही है।

अगर हम इस स्थिति को समझने की कोशिश करें तो यही दिखता है कि इसका ताल्लुक पार्टी की इस व्यापक असफलता से है जिसके अन्तर्गत उसके पास अधिक समावेशी, अधिक अग्रगामी तथा समय के बदलते मिजाज के अनुकूल विजन/भविष्यदृष्टि का अभाव है। अपने अतीत को ठीक करने के नाम पर वर्तमान को आपसी कलह से आप्लावित कर देने का उसका कार्यक्रम अब लोगों को आकर्षित नहीं कर रहा है। संघ जैसे अपारदर्शी संगठन से अपने रिश्तों को परिभाषित करने में आनाकानी करना भी भाजपा के लिए महंगा सौदा साबित हुआ है।

मालूम हो कि लॉर्ड मेघनाद देसाई, अमर्त्य सेन जैसे विद्वानों, अकादमिशियनों ने अपने लेखन में इस उम्मीद को जाहिर किया है कि भाजपा अगर अपना एकांतिक किस्म का एजेण्डा छोड़ दे, संघ से अपने वजूद को स्वतंत्र करे तो वह अपने आप को यूरोप की दक्षिणपंथी पार्टियों की शक्ल में ढाल सकती है, जो भारतीय जनतंत्र के भविष्य के लिए हितकर हो सकता है।

भाजपा के अन्दर भी जारी मंथन में या आपसी विवादों में हमें इस विचार की झलक दिख सकती है। पार्टी के अन्दर मौजूद मॉडरेट तबके का मानना रहा है कि पार्टी को चाहिए कि वह ‘विचारधारात्मक मुद्दों’ से जो ‘विघटनकारी और विभाजक’ दिखते हैं उनसे अपने आप को अलग करे, और अपने आप को ऐसे मुद्दों पर केन्द्रित करे जो युवाओं तथा मध्यम वर्ग को आकर्षित करें। उनका जोर रहा है कि भाजपा आधुनिकता को अपनाये, वह व्यापक गठजोड़ों को कायम करने की स्थिति में आए और पहचान की राजनीति से तौबा करे। निश्चित ही यह धारा हमेशा कमजोर रही है और अब बदलते परिदृश्य में उसके और कमजोर होने की सम्भावना है।

दूसरा तबका, जो अब अधिकाधिक हावी होता दिखता है, उसका हमेशा मानना रहा है कि संघ के साथ अपने नाभिनाल सम्बन्ध बना कर रखे जाएं, पार्टी के रोजमर्रा के संचालन में संघ का दखल बढ़े, तथा पार्टी हिन्दू हितों के लिए समर्पित हिन्दू पार्टी बने, भले ही चुनावी गणित के हिसाब से यह मामला उल्टा पड़ता दिखे।

पहचान की राजनीति के सवाल पर पार्टी के अन्दर मौजूद तनाव के अलावा तनाव का एक अन्य स्तर भी है जिसका ताल्लुक अर्थव्यवस्था की दिशा से है। दिलचस्प है कि संघ के प्रति अपनी वफादारी का दिन रात इजहार करने वाले पार्टी के बहुमत के लिए नवउदारवादी सुधारों को अपनाने से कोई गुरेज नहीं था, जबकि पार्टी का अल्पमत संघ द्वारा प्रतिपादित स्वदेशी की हिमायत कर रहा था।

नये लोगों, मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में भाजपा की असफलता का एक कम चर्चित पहलू रहा है उसकी अगुआई में केन्द्र में चला—छह साला शासन ( 1998-2004) जिसमें वह शासन, पारदर्शिता एवं जवाबदेही के मामले में कांग्रेस जितनी ही खराब या कभी-कभी उससे अधिक कमजोर नज़र आयी है। उसके अपने विचारों एवं व्यवहार में व्याप्त गहरे अन्तराल का भी इस दौर में भण्डाफोड़ हुआ जब उसके कई नेता खोजी पत्रकारों द्वारा संचालित स्टिंग आपरेशन में घूस लेते पकड़े गए। पार्टी के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण तो बाकायदा कैमरे के सामने यह कहते सुने गए कि ‘अगली बार डॉलर लेकर आना।’ यह बात समझने में लोगों को अधिक वक्त नहीं लगा कि अपनी किशोरावस्था से संघ के कार्यकर्ता रहे ये लोग—जो संगठन अपने आप को चरित्र निर्माण के लिए प्रतिबद्ध कहता है—आखिर किस किस्म के चरित्र के वाहक हैं। इतना ही नहीं संघ के आजीवन प्रचारक रहे कई लोग भी अपने रिश्तेदारों के लिए पेट्रोल पम्प का आवण्टन करते, संस्था के नाम पर जमीन का प्लाट लेते नज़र आए। संघ के एक शीर्षस्थ नेता पर तो संगठन के अन्दर के विरोधियों ने ही ऐसी सीडी तैयार कर दी जिसमें वह किसी गैर महिला के साथ आपत्तिजनक अवस्था में देखे गए।

यह सोचने का मसला है कि इन तमाम तथ्यों से हम क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं।

कुछ बातें बिल्कुल साफ हैं जहां तक पार्टी के भविष्य का सवाल है :
पार्टी के अन्दर वास्तविक जनतांत्रिक प्रणाली की अनुपस्थिति ने ताकि एक ऐसे नेता को चुना जा सके जो सामान्य पार्टी कार्यकर्ताओं एवं अन्यों को भी स्वीकार हो और जटिल मामलों को सुलझाने में संघ पर उसकी निरन्तर निर्भरता ने उसे एक ऐसी स्थिति में ला खड़ा किया है कि पार्टी के संचालन में संघ का हस्तक्षेप बढ़ता ही जाएगा। पार्टी के महत्वपूर्ण पदों पर संघ के प्रचारकों की उपस्थिति, जिनकी जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं हो तथा देश एवं दुनिया के बारे में उनकी ‘जुरासिक पार्क’ जैसी मानसिकता पार्टी के संकट को और गहरा सकती है।

जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है पार्टी पर संघ का अधिकाधिक नियंत्रण, पार्टी के अन्दर के मॉडरेट आवाज़ों को अधिकाधिक हाशिये पर डाल देगा। चाहे 2004 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिली शिकस्त हो या 2009 के चुनावों में उसे मिली असफलता हो, मातृसंगठन संघ ने यही माना है कि यह हिन्दुत्व के एजेण्डे को कमजोर करने का नतीजा है। साफ है अपने इस मूल एजेण्डे से किसी भी विचलन को वह बर्दाश्त नहीं करेगी।

वाजपेयी एवं आडवाणी के नेपथ्य में जाने के इस दौर में पार्टी के लिए अब हिन्दुत्व की एक खास किस्म की छवि पेश करना ही सम्भव होगा। अब उसके पास वह सुविधा नहीं होगी कि वह वाजपेयी के बहाने मॉडरेट आवाज़ों को आकर्षित करे तथा आडवाणी के नाम पर अधिक हिन्दूवादी तत्वों को साथ जोड़ें। नजदीकी भविष्य में उसकी यह कमजोरी होगी। 1998/1999 के उसके अनुभवों को हमें नहीं भूलना चाहिए जिसमें उसने अपनी मॉडरेट छवि के सहारे तमाम पार्टियों को साथ जोड़ा था।

क्या इन सभी बातों का अर्थ होगा कि पार्टी के लिए अपने पुराने वैभव को हासिल करना बिल्कुल असम्भव होगा और लम्बे समय तक उसे राजनीतिक बियाबान में ही भटकना पड़ेगा?

स्थूल रूप में देखें तो दो ऐसे कारक है जो उसकी इस सम्भावित दुर्दशा को रोक सकते हैं। पहले का ताल्लुक नवउदारवादी आर्थिक सुधारों और व्यापक जनता पर उसके पड़ने वाले प्रभावों से है। दूसरा कारक, साम्प्रदायिकता के सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक आधारों की मौजूदगी से है जो अभी तक अक्षुण्ण बने हुए हैं। कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग के सामाजिक एजेण्डा और नवउदारवादी आर्थिक सुधारों में अन्तर्निहित अन्तर्विरोध हैं। आज भले ही यह अन्तर्विरोध नियंत्रण में दिखें, लेकिन वह कभी भी तीव्र हो सकते हैं। ‘मानवीय चेहरे वाले सुधारों’ की संप्रग सरकार की रणनीति तब खतरे में पड़ सकती है और ऐसी परिस्थितियां पैदा हो सकती हैं जो एकांगी किस्म की ताकतों के लिए माकूल जमीन तैयार कर सकती हैं।

वर्ष 2004 में भाजपा को शिकस्त देकर सत्ता में आयी और वर्ष 2009 में अपने जीत के सिलसिले को दोहराने वाली कांग्रेस ने कभी भी अपने ‘साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष’ को सर्वधर्म समभाव के विमर्श से आगे नहीं जाने दिया है। अक्सर यही देखा गया है कि संघ परिवार के उग्र हिन्दुत्व का मुकाबला करने के लिए धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्तों के आधार पर समझौता विहीन संघर्ष करने के बजाय उसने खुद ‘नरम हिन्दुत्व’ का सहारा लिया है। ऐसी परिस्थितियों में समाज एवं राजनीति के साम्प्रदायिक एवं बहुसंख्यकवादी गढंत/कंस्ट्रक्शन को कभी एजेण्डा पर नहीं लाया जा सका है।

साफ है कि यह ऐसी स्थितियां हैं जो केसरिया पलटन की वापसी का रास्ता सुगम कर सकती हैं।

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