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सांप्रदायिकता

सावरकर के स्वयंभू वारिस !

सुभाष गाताडे

संघ-भाजपा के नकली सावरकर प्रेम का नए सिरे से खुलासा सूबा महाराष्ट्र के आसन्न विधानसभा चुनावों के ऐन पहले होगा, इसकी उम्मीद शायद ही किसी ने की होगी। मालूम हो कि मराठी जनता के एक हिस्से में सावरकर के प्रति व्याप्त आदर को देखते हुए लोकसभा में भाजपा की तरफ से पिछले दिनों यह मांग रखी गयी कि फ्रांस के मशहूर शहर मार्साय में उनके नाम से स्मारक बनाया जाए। वे सभी जो सावरकर के जीवन से परिचित हैं वह बता सकते हैं कि फ्रांस का यही वह चर्चित स्थान है जहां ब्रिटिश हिरासत से भागने के लिए सावरकर ने समुद्र में छलांग लगायी थी और बाद में पकड़े गए थे।

लोकसभा में पार्टी के सांसद गोपीनाथ मुण्डे ने सावरकर शताब्दी वर्ष को देखते हुए यह मुद्दा उठाया और कहा कि सावरकर का स्मारक बनाने की मांग स्थानीय मेयर ने स्वीकार करने का पत्र भेजा है और भारत सरकार को चाहिए कि वह इस मसले को फ्रांसीसी सरकार के साथ उठाए। विपक्ष के नेता आडवाणी और उपनेता सुषमा स्वराज्य ने झट से इस मांग का समर्थन किया और सरकार को यह उलाहना भी दी कि वह विचारधारा के नाम पर ‘स्वतंत्रता सेनानियों’ को बांट रही है।

इस मसले पर गरमागरम चली बहस में न सत्ता पक्ष और न ही तमतमायी भाजपा का ध्यान एक छोटी सी बात पर गया जिसकी तरफ ‘स्वातंत्रयवीर सावरकर सेवा केन्द्र’ ने इशारा किया है। दरअसल ऐसा पत्र अवश्य आया था जिसे मार्साय के मेयर जीन क्लॉड ने ही भेज दिया था, यह जुदा बात है कि वह आज से ठीक ग्यारह साल पहले अर्थात् 8 जुलाई 1998 को ही यहां पहुंचा था; जिन दिनों अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री के पद पर विराजमान थे। उन दिनों प्रधानमंत्री कार्यालय ने इसे विदेश मंत्रालय का मामला बताकर टाल दिया था और विदेश मंत्रालय ने इस पर कोई कदम उठाना मुनासिब नहीं समझा था।
(भास्कर, 9 जुलाई 2009)

वैसे यह तो सभी जानते हैं कि यह कोई पहला मौका नहीं है जबकि संघ-भाजपा ने अपने आप को सावरकर का सच्चा अनुयायी या वारिस घोषित करने की कोशिश की हो। लोगों को याद होगा कि केन्द्र में भाजपा की अगुआई वाली गठबन्धन की हुकूमत के दिनों में भी यह मुद्दा जेरेबहस था, जिन दिनों संसद में सावरकर की प्रतिमा के अनावरण को लेकर विवाद गरमाया था। केन्द्र की सत्ता से बेदखली के बाद अंडमान जेल में लगी उनके नाम की पट्टिका हटाने को लेकर भी काफी हंगामा हुआ था।

हालांकि इस तथ्य को बहुत कम लोग जानते हैं कि सावरकर के बारे में उभरा संघ-भाजपा का प्रेम बहुत हाल की बात है और वह सियासी कारणों से उभरा है। अगर ऐसा नहीं होता तो 1998 के पहले पांच साल जब वह सूबा महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ सत्ता में साझेदार थी, उन दिनों सावरकर की एक अदद तस्वीर विधानसभा में लगवा सकती थी, लेकिन इतना भी काम उसने नहीं किया।

संघ-सावरकर के अन्तर्सम्बन्ध को लेकर बहुत मारक टिप्पणी हिन्दू महासभा के नेता और सावरकर के भतीजे विक्रम सावरकर ने उन दिनों पेश की थी जब संघ-भाजपा ने बहुत बढ़-चढ़ कर अपने आप को सावरकर के सच्चे मुरीद के तौर पर पेश करना शुरू किया था और यह वक्त़ था महाराष्ट्र विधानसभा के पिछले चुनावों का (2004) उनके मुताबिक उन्हें इस बात से आश्चर्य नहीं होता कि ‘सावरकर में भाजपा की रुचि नहीं है’। उनके मुताबिक ‘हम अच्छी तरह जानते हैं कि भाजपा और संघ ने सावरकर के दर्शन को कभी पसन्द नहीं किया।’’ उपरोक्त रिपोर्ट के मुताबिक विक्रम सावरकर का यह भी कहना था कि, ‘‘सावरकर के प्रति भाजपा का अचानक उमड़ा प्रेम एक फरेब है। वह दरअसल महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में मतदाताओं को लुभाने की चाल है।“
(सावरकर नेफ्यू हिट्स आउट एट बीजेपी, इण्डियन एक्स्प्रेस, 30 अगस्त 2004)

अगर आप संघ या हिन्दू महासभा के इतिहास पर या सावरकर-हेडगेवार-गोलवलकर की जीवनियों पर भी नज़र डालेंगे तो पाएंगे कि संघ के नेताओं की सावरकर से यह दूरी उन्हीं दिनों की पैदाइश है जब औपनिवेशिक काल में दोनों की ओर से एक ही तबके को अर्थात हिन्दुओं को अपने पक्ष में करने की कोशिशें चल रही थी। इतिहास इस बात का गवाह है कि सावरकर चाहते थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनके राजनीतिक संगठन हिन्दू महासभा की युवा शाखा बन जाये, लेकिन हेडगेवार-गोलवलकर ने इस बात से इन्कार किया था; जिसकी वजह से सावरकर ने ‘रामसेना’ का निर्माण किया था।

गोलवलकर तथा सावरकर के आपसी सम्बन्ध किस हद तक बाद में भी असहज थे, इसका अन्दाजा 1958 में गोलवलकर के दिये एक वक्तव्य से भी लगता है, जो श्री गुरुजी समग्र शीर्षक से संकलित रचनाओं के खंड 10 में ‘हिन्दू महासभा का असमवायी दृष्टिकोण’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है (पेज 258)। अम्बाला में आयोजित भारतीय जनसंघ के अधिवेशन में स्वागत समिति का सभापतित्व स्वीकारने पर जब हिन्दू महासभा के पुराने कार्यकर्ता कैप्टन केशवचंद्र को हिन्दू महासभा से निष्कासित किया गया था, उस पर प्रतिक्रिया देते हुए गोलवलकर ने लिखा है कि यह ‘लोगों की एकता को छिन्न-विछिन्न करने वाले रोग, राजनीतिक निषेधता एवं राजनीतिक अस्पृश्यता का एक और प्रसंग है।’ उन्होंने आगे जोड़ा था ‘यह अप्रजातांत्रिक भी है। इसमें से भी राजतंत्रीय निरंकुशता अथवा हृदयविहीन दलीय तानाशाही की दुर्गंध आती है। यह पूर्णतः अहिंदू दृष्टिकोण है।’

संघ तथा सावरकर के आपसी रिश्तों में सब कुछ कत्तई सामान्य नहीं था, इसका अन्दाज़ा ‘श्री गुरुजी समग्र’ शीर्षक से संघ परिवार द्वारा प्रकाशित गोलवलकर की चुनी हुई रचनाओं से भी लगता है, जिसमें वे संघ शिक्षा वर्ग के वार्षिक आयोजन के अपने भाषण में सावरकर को श्रद्धांजलि देने की औपचारिकता भी नहीं निभाते। (श्री गुरुजी समग्र, सुरुचि प्रकाशन, युगाब्द 5106) सावरकर के बारे में प्रदर्शित किये जाते रहे इस सुविधाजनक मौन की ही निशानी है कि संघ से जुड़े प्रकाशनों द्वारा प्रकाशित गोलवलकर की जीवनियां तक सावरकर के बारे में लगभग मौन रहती हैं। चन्द्रशेखर परमानन्द भिशीकर, जिनके द्वारा लिखी हेडगेवार की जीवनी भी आधिकारिक मानी जाती है, वह भी ‘नवयुग प्रवर्तक श्री गुरुजी’ शीर्षक गोलवलकर की जीवनी (लोकहित प्रकाशन, 2003, लखनऊ) में गांधी हत्या के आरोप में गोलवलकर-सावरकर आदि की हुई गिरफ्तारियां जैसे प्रसंगों के सिलसिले में सावरकर के सन्दर्भ को हटा ही देते हैं।

वैसे सावरकर के इन स्वयंभू वारिसों को अगर यह पता चले कि सावरकर ने जीते जी इन सबके आका हेडगेवार-गोलवलकर और उनकी लम्बी चौड़ी स्वयंसेवक मण्डली को उनकी कायरता, बुजदिली और अकर्मण्यता के लिये किस तरह बार-बार लताड़ा था, और संघ के नेताओं ने उन्हें क्या कहा था तो निश्चित तौर पर वह चकरा जाएंगे। उदाहरण के तौर पर, सावरकर ने कहा था ‘‘संघ के स्वयंसेवक का मृत्युलेख होगा, वह पैदा हुआ, वह संघ में शामिल हुआ और कुछ हासिल किये बिना मर गया। (डी. वी. केलकर, ‘‘द आर एस एस’’ इकोनोमिक वीकली, 4 फरवरी 1950: 132) निश्चित ही गोलवलकर तथा हिन्दुत्व के अन्य तमाम नेताओं ने उसी सुर में सावरकर पर भी जवाबी हमले किये थे। संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर ने तो सावरकर के विचारों के लिए उन्हें कभी ‘भेष बदले हुए मुसलमान’ के तौर पर भी सम्बोधित किया था।

वैसे आज नहीं तो कल ‘परिवारजन’ जब अपने अतीत पर बेबाकी से मंथन करेंगे तो उन्हें न केवल इस सवाल से जूझना पड़ेगा कि आज़ादी के आन्दोलन के दौरान संघ को उससे दूर रखने के हेडगेवार-गोलवलकर के फैसले के बारे में वह क्या सोचते हैं ? आज़ाद हिन्दोस्तां को एक नया संविधान प्रदान करने की कोशिशों का विरोध करते हुए ‘मनुस्मृति’ को ही संविधान पर लागू किया जाये, इस किस्म के गोलवलकर के प्रस्ताव के बारे में वह क्या राय बनाते हैं।

लेकिन फौरी तौर पर उन्हें इस सवाल का जवाब देना होगा कि उनके नये आराध्य सावरकर ने 1942 में, जबकि समूचे हिन्दोस्तां की अवाम बर्तानवी हुक्मरानों के खिलाफ खड़ी थी, उन दिनों ब्रिटिश फौज में हिन्दुओं को भर्ती करने की जो मुहिम चलायी थी, क्या वह उचित थी। और सबसे बढ़ कर जिस मुस्लिम लीग के खिलाफ रात दिन सावरकर जहर उगलते रहे, उसी के साथ 40 के दशक की शुरुआत में बंगाल में ‘हिन्दू महासभा’ की साझा सरकार चलाने में भी उन्हें किसी तरह के द्वंद से गुजरना नहीं पड़ा था।

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