Readings - Hindi

साझी विरासत

वैश्वीकरण और मीडिया-संस्कृति एवं साझी विरासत पर असर

आई.एस.डी.

सबसे पहले यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि संस्कृति शब्द को इस लेख में कई जगह परस्पर भिन्न अर्थों में इस्तेमाल किया गया है क्योंकि साझी विरासत व्यापक समुच्चय का सिर्फ एक हिस्सा भर है। लेकिन साझी विरासत मूल्य-युक्त संस्कृति के हर पहलू से ठीक वैसे नहीं जुड़ी होती है जिस तरह व्यापक उपभोग की संस्कृति जुड़ी होती है।

मीडिया को हम अखबार, रेडियो प्रसारण और टेलीविजन जैसे संचार माध्यमों के समुच्चय के रूप में देखते हैं। मास मीडिया (जन माध्यम) की विषयवस्तु—मनोरंजन, समाचार, शैक्षणिक कार्यक्रम, विज्ञापन, विभिन्न प्रकार की छवियों के निर्माण—से ‘सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, वैधानिक एवं नैतिक ताने-बाने की स्थिरता या अस्थिरता’ पर गहरा असर पड़ता है। सवाल यह है कि वे कौन से तत्व हैं जो मीडिया को कुशल बनाते हैं और वे कौन से हालात हैं जिनकी वजह से मीडिया का सामाजिक प्रभाव पैदा होता है। इसकी व्याख्या तकनीकी प्रगति और वैश्वीकरण की प्रक्रिया के दायरे में ढूंढी जानी चाहिए। हालांकि सतही तौर पर दोनों के बीच संबंध भले न दिखता हो लेकिन ये दोनों बातें एक-दूसरे से गहरे तौर पर जुड़ी हुई हैं। अलग-अलग चलते हुए भी मीडिया और वैश्वीकरण दोनों एक-दूसरे से खुराक पाते हैं और दोनों मिलकर इंसानी अस्तित्व पर गहरा असर डाल रहे हैं। दोनों के बीच एक दिलचस्प समानता है। दोनों ही ऐसी प्रक्रियाएं हैं जो तभी से चली आ रही हैं जबसे मनुष्य ने सामाजिक समूहों में जीना शुरू किया था। शुरुआत में ये प्रक्रियाएं बहुत धीमी और छोटी थीं। उन्हें पकड़ पाना मुश्किल था। लेकिन, अगर वैश्वीकरण को ”एकीकरण और घुलने-मिलने“ की प्रक्रिया माना जाता है तो अलग-थलग रहने वाले कबीले भी प्राचीन काल से कमोबेश यही करते आ रहे हैं। ये कबीले समय-समय पर विचार-विमर्श के लिए इकट्ठा होते हैं। नए अवसरों की तलाश में कारोबारी समुदाय दूर-दूर तक आते-जाते हैं। अपने धार्मिक विश्वासों को फैलाने के लिए धर्मप्रचारक महाद्वीपों की सीमाएं पार कर जाते हैं। योद्धा कबीलों के लोग नित नई फतह के लिए नए-नए इलाकों में जाते हैं। ये सभी अलग-अलग समुदायों के परस्पर एकीकरण की प्रक्रियाएं हैं। संचार एवं आर्थिक गतिविधियों से पैदा होने वाली बाधाओं के बावजूद स्थानीय से क्षेत्रीय और क्षेत्रीय से राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया चलती रहती थी। इसी तरह का एकीकरण आज राष्ट्रीय से वैश्विक दिशा में होता दिखाई देता है।

इस लिहाज से सामाजिक जीवन के ये दो सिरे दिखाई देते हैं: (क) छोटी सामुदायिक कबीलाई इकाईयां जहां सब लोग एक-दूसरे को व्यक्तिगत रूप से जानते थे; तथा (ख) एक वैश्विक गांव का जीवन जिसमें हरेक का अस्तित्व वैश्विक प्रतीत होता है। इससे द्रुत बदलावों को गति मिलती है और परिवर्तन की रफ्तार समाज में मंथन की एक ऐसी प्रक्रिया शुरू करती है जिससे कुछ को लाभ होता है तो औरों को नुकसान होता है। यानी कुछ विजेता और बाकी पराजित होते हैं। इससे बेहिसाब तनाव भी पैदा होते हैं जो सामाजिक टकरावों को जन्म देते हैं।

वैश्वीकरण के हिमायतियों ने समझ लिया है कि दूसरे राष्ट्रों को अपना उपनिवेश बना लेने से आर्थिक फायदे तो होते हैं लेकिन बदले में भारी राजनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ती है जबकि आर्थिक रूप से शक्तिशाली देशों के नेतृत्व में आर्थिक वैश्वीकरण के बदले कोई ज्यादा राजनीतिक नुकसान उठाना नहीं पड़ता। वैश्वीकरण का मतलब है वस्तुओं, सेवाओं और पूंजी का राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार मुक्त प्रवाह और राष्ट्रीय उद्यमों का निजीकरण। पिछले दो दशकों में कंप्यूटर एवं दूरसंचार प्रौद्योगिकियों में आई क्रांतियों ने विश्व अर्थव्यवस्था के एकीकरण को भारी गति प्रदान कर दी है। गौर करने वाली बात यह है कि इन प्रौद्योगिकियों ने उत्पादकता में इजाफा नहीं किया है। ‘यद्यपि उत्पादन प्रक्रिया के कुछ आयाम पहले से ज्यादा कुशलता से संपन्न होने लगे हैं लेकिन उत्पादकता में कोई खास इजाफा दिखाई नहीं देता। मिसाल के तौर पर, अब रेलवे स्टेशनों पर आरक्षण भले पलक झपकते ही मिल जाता है लेकिन रेलगाड़ियां अब भी वैसी ही लेट-लतीफ चलती हैं जैसे पहले चलती थीं।’

पुराने जमाने से ही ‘संचार क्षमता एवं सांस्कृतिक रूपों का विकास एक सामाजिक जरूरत बन चुका था जिसमें संबंधों और विश्वासों, मूल्यों और इच्छाओं का एक जटिल जाल समाया होता था और वही संस्कृति का केंद्र होता था (पेरेज़ दि कुइयार, अवर क्रिएटिव सोसायटी, यूनेस्को रिपोर्ट)।’ संगीत, शायरी, नृत्य नाटिकाएं, धार्मिक व नैतिक विचार, चित्रकारी, ड्रामा, वास्तुशिल्प और दस्तकारी को मनुष्य की सांस्कृतिक रचनाओं में शुमार किया जाता है। लेकिन पहले इनके संचार और प्रसार के माध्यम बहुत कम थे। जो थे वे भी मुख्य रूप से मौखिक माध्यम थे। जाहिर है भौगोलिक और सामाजिक दृष्टि से उनकी पहुंच बहुत कम थी। फलस्वरूप बेहिसाब सांस्कृतिक विविधता पैदा हुई। यह इस बात का परिणाम था कि ज्यादातर समुदाय एक-दूसरे से कटे हुए थे और प्रभावी संचार का कोई साधन उनके पास नहीं था। पूरे मानव इतिहास में दूर तक जाने और ज्यादा से ज्यादा लोगों से ताल्लुक कायम करने की कोशिशें या तो शांतिपूर्वक संपन्न हुई हैं या भीषण हिंसा के रास्ते परवान चढ़ी हैं। जब लोग एक-दूसरे के संपर्क में होते हैं—खासतौर से प्रत्यक्ष निजी संपर्क में—तो वे कुछ साझा अर्थों, साझा परिभाषाओं, साझा मूल्यों को अपनाने लगते हैं। उनके बीच भावनात्मक बंधन एवं सामाजिक सत्ता पुख्ता होने लगती है। जन माध्यम भी साझा अनुभवों के आदान-प्रदान के जरिए श्रोताओं को समूह के नजदीक लाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ऐसा करते हुए ये माध्यम संचार की ऊपर से नीचे की दिशा में केंद्रित लंबवत् कार्यनीति अपनाते हैं। उसमें आमने-सामने या क्षैतिज संचार की गुंजाइश नहीं होती।

यहां पल भर ठहर कर, ‘संस्कृति’ की सोच को जांचना-परखना जरूरी है। संस्कृति एक जटिल परिघटना है। इसकी कोई एक परिभाषा देना आसान नहीं होगा। कुछ मानवशास्त्रिायों का अनुमान है कि अब तक संस्कृति की 164 परिभाषाएं सामने आ चुकी हैं। बहरहाल, मोटे तौर पर इसका आशय समाज के सदस्य की हैसियत से मनुष्य द्वारा ग्रहण की गई ‘क्षमताओं और आदतों’ (ई. बी. टेलर, प्रिमिटिव कल्चर) से होता है। संस्कृति किसी भी तरह की अस्त-व्यस्तता और टकरावों के समय कवच का काम करती है। ज्ञान प्रणालियां, भाषाएं, विचार, मान्यताएं, रीति-रिवाज, संहिताएं, धर्म, नैतिकता, संस्थान, परिवार, कानून, कलाकृतियां और ऐसी हर चीज संस्कृति की परिधि में आती है जिसके जरिए मनुष्य जीता है और अपने अस्तित्व को नियंत्रित करता है। संस्कृति में एक संक्रामक गुण होता है। सांस्कृतिक गुणों/खासियतों को लोग एक-दूसरे से फौरन अपना लेते हैं। क्योंकि संस्कृति के सभी तत्व एक-दूसरे से जुड़े होते हैं इसलिए किसी सांस्कृतिक व्यवस्था में मामूली सा भी बदलाव आने पर अन्य सांस्कृतिक प्रणालियों पर भी गहरे असर पड़ते हैं। दीदेरॉ, रूसो, काँट, मैथ्यू आर्नल्ड आदि मानवतावादी विचारकों के मुताबिक संस्कृति प्राकृतिक, जैविक, रचनाशील, और सच्ची भी हो सकती है और वह कृत्रिम, यांत्रिक, रूढ़, सतही, दासभावी, मस्तिष्कहीन, भ्रष्ट और अलगावग्रस्त भी हो सकती है। एक क्षण के लिए विषयांतर करें तो यहां यह कहा जा सकता है कि यह ऐसे गुणों का पहला समूह है जो साझी विरासत की अवधारणा के निकट पहुंचता है। रेमंड विलियम्स (कल्चर एंड सोसायटी, 1780-1950) का मानना है कि संस्कृति का आधुनिक अर्थ अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में ही सामने आया है क्योंकि इससे पहले तक संस्कृति का मतलब सिर्फ जमीन जोतने तक सीमित था: (1) आधुनिक काल में इसका मतलब मस्तिष्क की सामान्य दशा या आदतों के अर्थ में लिया जाने लगा; (2) इसने पूरे समाज के पैमाने पर सामान्य बौद्धिक स्तर को चिन्हित करना शुरू कर दिया; (3) इसने कला संपदा को इंगित किया; (4) सदी के आखिर में यह भौतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक---समूचे जीवनदर्शन को इंगित करने लगा।

मैथ्यू आर्नल्ड का कहना है कि “लोकतंत्र, औद्योगीकरण और मशीनीकरण के युग में संस्कृति का विकास समाज को आत्मध्वंस की ओर बढ़ने से रोकने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।” महान दक्षिण अमेरिकी सभ्यता को लगभग नष्ट करने की स्थिति में जा पहुंचे एक बर्बर स्पेनियार्ड कोर्तेस का उदाहरण देते हुए त्सेवेतान तोपोरोव (दि कॉन्क्वैस्ट ऑफ़ अमेरिका) ने कहा है: “औरों की भाषा तथा औरों की राजनीतिक संरचना का ज्ञान हासिल करने के लिए कोर्तेस उनकी खाल में घुस जाता है।” लेकिन ऐसा करते हुए वह कभी भी अपनी श्रेष्ठता के अहसास को नहीं त्यागता। इसके बाद दूसरे चरण में वह सिर्फ अपनी पहचान पर जोर देकर ही संतुष्ट नहीं है बल्कि इंडियन्स को भी अपनी दुनिया में समाहित करने के लिए उद्यत हो जाता है। कोर्तेस की फतहों से जो सबक निकले उन्हें तमाम उपनिवेशकारों ने आत्मसात कर लिया है। मीडिया के नेतृत्व में चल रहे सांस्कृतिक साम्राज्यवाद ने भी इन सबकों को खूब इस्तेमाल किया है। तलवार हाथ में लिए चलने वाले पुराने नृशंस विजेता की जगह अब विद्वान, पुजारी और व्यापारी की त्रिमूर्ति ने ले ली है। विद्वान उस इलाके के बारे में जानकारियां इकट्ठा करता है जिस को जीता जाना है, पुजारी उसके आध्यात्मिक अधिग्रहण का रास्ता साफ करता है और व्यापारी मुनाफे से अपनी तिजोरियां भरता है। आज के संदर्भ में इस त्रिमूर्ति को मोटे तौर पर ‘बाजार शोधकर्ता’, ‘विज्ञापनकर्मी’ और ‘पूंजीवादी’ के रूप में समझा जा सकता है। चाहे आप इसे ‘अंतर्सांस्कृतिक सहमेल’ कहें या आधुनिकीकरण का नाम दें, सच्चाई यह है कि ये सब ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’ के ही सूक्ष्म रूप हैं। संस्कृति एवं विकास पर केंद्रित यूनेस्को की एक रिपोर्ट के मुताबिक: लद्दाख से लिस्बन तक, चीन से पेरू तक; पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में—वेशभूषा, जीन्स, बाल काढ़ने के तरीके, टी-शर्टस, जॉगिंग, खाने की आदतें, संगीत के सुर, यौनिकता के प्रति रवैये, सब वैश्विक हो गए हैं। यहां तक कि नशीली दवाइयों से संबंधित अपराध, औरतों के साथ दुराचार व बलात्कार, घोटाले और भ्रष्टाचार भी सरहदों को पार करके वैश्विक रूप धारण कर चुके हैं। वैश्वीकरण और उदारीकरण के अंतर्निहित वैचारिक आधार को ‘मुक्त बाजार’, ‘प्रगति’ और ‘बौद्धिक स्वतंत्रता’ जैसे विचारों की देन माना जा सकता है जो एक खास तरह के सांस्कृतिक परिवेश का हिस्सा होते हैं। इस प्रकार हमें मुट्ठी भर विकसित राष्ट्रों के वर्चस्व वाली समरूप वैश्विक संस्कृति में घुल-मिल जाना पड़ता है ताकि वैश्वीकरण और उदारीकरण के अधिकतम लाभ पा सकें। इसका नतीजा यह होता है कि राष्ट्रीय संस्कृति और लगातार घुसपैठ करती वैश्विक संस्कृति के बीच तनाव पैदा होता जाता है। और भी चिंताजनक बात यह है कि महानगरीय केंद्रों से नियंत्रित होने वाली क्षेत्रीय उपसंस्कृतियों को भी मीडिया अपने दबदबे में ले लेता है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया कुछ खास सिद्धांतों पर चलती है : बाजार सब कुछ जानता है (व्यक्तिवाद); व्यक्ति जो चाहता है उसे मिलना चाहिए ताकि वह संतुष्ट रहे, भले वह पोर्नोग्राफी ही क्यों न मांगे (भोगवाद)। कहने का मतलब यह है कि इससे विविध संस्कृतियों में बनावटी समरूपता पैदा होती है जिससे मानव सभ्यता दरिद्र होने लगती है।

आगे बढ़ने से पहले कुछ ऐसे हानिकारक आयामों को रेखांकित करना बेहतर होगा जो बाजार और मीडिया के बीच नाभि-नाल रिश्तों को मजबूत बनाते हैं और वैश्विक संस्कृति को जन्म देते हैं।

1.     संदेश देने वाले के लिए लक्ष्य श्रोता अदृश्य रहता है जिसके चलते संदेशों को श्रोताओं के हिसाब से जैसे चाहे काटा-छांटा जा सकता है। इस प्रकार जो सूचना आगे बढ़ाई जा रही है उसको विविधता की बजाय सामान्य मानकों की कसौटी पर कसा जाता है। किसी लोक कला के एक रूढ़ मीडिया प्रस्तुतिकरण में सामान्य संरचना पर जोर दिया जाएगा लेकिन किसी इलाके के अलग-अलग हिस्सों में प्रचलित बारीक चीजों को छोड़ दिया जाएगा और जिज्ञासु दर्शकों को कुछ खास सीखने का मौका नहीं मिल पाएगा। यह सामान्यीकृत प्रक्रिया एक अवधि के बाद मानक बन जाती है जिसे हर अनुगामी को अपनाना होता है। यही बात भाषा पर भी खरी उतरती है। सभी जानते हैं कि भाषा अपने क्षेत्र और वहां की स्थानीय खासियतों को साथ लिये चलती है। इस प्रकार मीडिया में एक तटस्थ किस्म की भाषा को बढ़ावा दिया जाता है ताकि अलग-अलग अवधियों में तरह-तरह के दर्शकों और श्रोताओं से बात की जा सके। इस प्रकार एक खास किस्म की भाषायी अभिव्यक्ति सार्वभौमिक मॉडल बन जाती है।

2.     दर्शकों और श्रोताओं के विविध स्वरूप को देखते हुए संदेश देने वाला विमर्श के स्तर को निम्नतम साझा स्तर पर ले आता है ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग उसे समझ सकें। जाने-माने पत्रकार कार्ल बर्न्सटीन के मुताबिक इससे एक “टाइम इडियट संस्कृति” पैदा होती है। जैसा कि वह कहते हैं, “इतिहास में पहली बार सबसे बेतुके, सबसे बेवकूफ और सबसे भद्दी चीजें हमारे सांस्कृतिक प्रतीक यहां तक कि हमारे सांस्कृतिक आदर्श बनती जा रही हैं।” ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंचने के लिए मीडिया सतही, पची-पचायी, आसानी से समझ में आने वाली खुराक बेचती है। वास्तव में टेलीविजन का पर्दा, मनोरंजक अखबार और चमकदार पत्रिकाओं ने आलोचनात्मक पड़ताल और विचार-विमर्श की संभावनाओं को तार-तार कर डाला है। एक समय के बाद दर्शक भी इसी तरह की सूचनाओं के पीछे पागल होने लगते हैं। दर्शक जटिल समस्याओं के सरल जवाब ढूंढना चाहते हैं और जटिल व सूक्ष्म परिघटनाओं में दिलचस्पी दिनोंदिन घटने लगती है। दिनों-दिन में रुचि छोड़ कर लोग हल्के-फुल्के कामों में जाने लगते हैं और नई पीढ़ी में विश्लेषण की उतनी गहरी क्षमता नहीं बचती।

3.     आकार और विशाल स्तर से संचालित होने वाला मीडिया अक्सर अल्पसंख्यकों और हाशियाई तबकों की रुचियों और हितों को प्रायः अनदेखा कर देता है। स्थानीय तत्व वैश्विक मीडिया के साथ कोई असरदार प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते।

4.     मानव इतिहास के लंबे काल में स्वाभाविक रूप से उपजे सांस्कृतिक रूप जन माध्यमों के फलस्वरूप अस्तित्व में आए अनूठे संचार माध्यमों के कारण बदल गए हैं और उन्हें बिल्कुल अलग उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा है। मसलन, प्रारंभिक दौर में धर्म उस असीम ईश्वर के साथ मेल का एक साधन था लेकिन अब यह राजनीतिक गोलबंदी का उपकरण बन चुका है।

5.     तमाम परंपरागत संस्कृतियां नैतिक आचरण की आधारशिला पर खड़ी होती थीं। मीडिया एक ऐसे प्रतिस्पर्धी विश्व में काम करता है जहां कवरेज और मुनाफा बढ़ाने के लिए हर रास्ता जायज है। मीडिया के ज़रिए आने वाली सूचना हमेशा एक खास नज़रिये से लैस होती है और घटना के कुछ सनसनीखेज और अजीबोगरीब आयामों को खासतौर से बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है जिससे किसी नैतिक आग्रह की कोई जरूरत बाकी नहीं रहती।

6.     प्राचीनकाल से ही साहित्य और किंवदंतियां लोगों के ‘विश्वसनीय अनुभव’ का हिस्सा रही हैं। जैसा कि एक विद्वान ने कहा है, समय की मांग यह है कि ‘वर्तमान के अभिलेखागार’ को पढ़ने की एक तकनीक विकसित की जाए; सिर्फ दर्शन, इतिहास और राजनीति को ही नहीं बल्कि चाक्षुक, श्रव्य, चित्रित, कल्पित और स्वरित पाठों को भी पढ़ा जाए जो हालिया इतिहास का हिस्सा हैं। लेकिन दूसरी तरफ एक स्याह पक्ष है जिसमें कुछ अच्छी बातें भी हैं। यह पक्ष है सार्वभौमिक मूल्यों के उदय का। जिन समाजों में पर्यावरण या लैंगिक संवेदनशीलता या मानवाधिकारों का खयाल नहीं किया जाता था उन्हें भी न केवल भीतर से बल्कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से विरोध और संशय का सामना करना पड़ रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि दुनिया भर में ये चिंताएं गरीबी और शोषण के उन्मूलन जैसे सवालों पर आंदोलन छेड़ रहे एक छोटे से तबके की तरफ से ही उठ रहे हैं। लेकिन फिर भी सिएटल या जिनेवा में प्रदर्शनकारियों की विशाल भीड़ को सिर्फ मुट्ठी भर भटके हुए लोगों की कहानी कहकर खारिज नहीं किया जा सकता।

एक जीवनशैली के रूप में संस्कृति लगातार बदलती जा रही है। आधुनिक काल में कुछ घटनाओं ने परिवर्तन की इस प्रक्रिया को बहुत तेज कर दिया है जिसके भयानक परिणाम पैदा हुए हैं : (क) सांस्कृतिक विविधता में कमी आई है; (ख) एक दूसरे की पहचान तय करने के लिए हर रोज इस्तेमाल होने वाले जातीय, भाषायी, क्षेत्रीय, धार्मिक एवं बहुसांस्कृतिक आयामों के ऊपर ‘मुक्त व्यापार’ तथा ‘संचार की स्वतंत्रता’ के नाम पर वर्चस्वशाली नियंत्रण कायम हुआ है। इस बदलाव के निहितार्थ बहुत तरह के हैं और इस बात के कोई संकेत दिखाई नहीं देते कि उनकी वजह से किसी भी तरह मानवता की सामाजिक, भौतिक या आध्यात्मिक कुशलक्षेम में इजाफा हो रहा है। इन पहचानों को भारतीय समाज के बहुलवाद और बहुगुणकता के आधार पर समझा जाना चाहिए जो एक व्यापक ‘साझा सहमति’ के रास्ते पर चल रहा है। जहां एक तरफ आधुनिकता के ज़रिए सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में पहचान के कई टकराव अपरिहार्य हैं वहीं दूसरी तरफ जातीय नियमों को चुनौती दी जा रही है, धर्म से संबंधित परापहचानों की निर्मित की प्रक्रिया गहरे खतरों से भरी हुई है। दैनिक जीवन में सामूहिक पहचानों की सामाजिक वरीयता को देखते हुए भारतीय संदर्भ में ‘व्यक्तिगत पहचान’ के बारे में सोचना या सिद्धांत बनाना एक कठिन कार्य है।

अब हम वैश्वीकरण और मीडिया के कुछ हानिकारक प्रभावों पर विचार करेंगे जिनसे इंसानियत के भविष्य के लिए विनाशकारी परिणाम सामने आ सकते हैं।

मानकीकृत और समरूप उपभोक्ता संस्कृति की दुनिया में पांव न जमा पाने के कारण, अपनी इच्छाओं को पूरा न कर पाने और सदियों पुरानी विरासत के साथ तनावपूर्ण संबंधों के चलते आज युवाओं को उनकी जातीय, धार्मिक एवं राष्ट्रीय पहचानों के आधार पर एकजुट किया जा रहा है। इसकी वजह से बेहिसाब तनाव पैदा हुए हैं। इन टकरावों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि ये टकराव संपदा और सत्ता के असमान वितरण से उपजे हैं। वैश्विक आर्थिक पुनर्गठन के कारण भारी रोजगार कटौती और बेरोजगारी ने आर्थिक गैरबराबरी और सामाजिक असंतोष बढ़ा दिया है। इन हालात में एक ऐसा माहौल पैदा किया है जहां पहचानों पर खतरा दिखाई देने लगा है। वर्ग आधारित राजनीति में आ रही गिरावट के कारण आम युवा कट्टरवादी आंदोलनों का शिकार बनते जा रहे हैं। शक्तियों के उपरोक्त समीकरण में कट्टरपंथी धार्मिक आंदोलन वैश्वीकरण की प्रक्रिया के पराजितों को एकजुट करके आगे बढ़ता है। कोई अचरज की बात नहीं है कि कट्टरपंथी धार्मिक आंदोलनों का सामाजिक आधार मोटे तौर पर गरीब और वंचित तबके ही रहे हैं जिन्हें अपनी लुप्त पहचान और आर्थिक स्थिरता पाने के लिए इन आंदोलनों के अलावा और कोई सहारा दिखाई नहीं देता।

इस बारे में उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। दक्षिण एशिया में सबसे बड़ा इस्लामिक मदरसा देवबंद में स्थित है जिसके तहत आने वाले मदरसों के एक विशाल नेटवर्क में एक जैसे पाठ्यक्रम के ज़रिए जेहादियों को बढ़ावा दिया जा रहा है। पूरे भारत में 8,934 देवबंदी मदरसों के इस नेटवर्क और पाकिस्तान में फैले कई नेटवर्कों ने कट्टरपंथी धार्मिक सोच को फैलाने में भारी भूमिका अदा की है। तालिबान के लिए पाकिस्तान में स्थित देवबंदी मदरसे अपने कारकूनों की भर्ती के लिए सबसे बढ़िया ठिकाना साबित हुए हैं। इस्लाम की देवबंदी सोच मूल इस्लामिक पाठों की श्रेष्ठता पर जोर देती है और सूफियों के विपरीत ‘साझेपन’ की हर निशानी को नेस्तनाबूद कर देना चाहती है। उल्लेखनीय है कि सूफी परंपरा सामयिक और स्थानीय संस्कृति को बढ़ावा देती रही है। 1857 के जन विद्रोह के बाद देवबंद को एक ऐसी परंपरावादी संस्था के रूप में खड़ा किया गया था जो ईसाई मिशनरियों और पश्चिमी शिक्षा के हमले का मुकाबला कर सके। देवबंद के संस्थापकों का मानना था कि इनकी वजह से उनका धर्म कमजोर पड़ सकता है। विडंबना यह है कि साम्राज्यवाद की चुनौती का यह त्रिपक्षीय जवाब और अलीगढ़ स्थित एमएओ कॉलेज के तहत आधुनिक शिक्षा और लखनऊ स्थित नदवातुल उलेमा के तहत परंपरागत और आधुनिक के बीच समन्वय दिखाई देता है। इसके बाद से देवबंदी मदरसे गरीब और असंतुष्ट मुस्लिम युवाओं को भर्ती करते चले जा रहे हैं। धार्मिक आधार पर भर्ती की ऐसी ही प्रक्रिया राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, उसके उग्र संगठनों और हिंदू श्रेष्ठता पर आधारित उसके शैक्षणिक संस्थानों में दिखाई देती है। लंबे समय से तनावग्रस्त कश्मीर का उदाहरण लीजिए। वहां सूफी त्यौहार (उर्स) और आध्यात्मिक उत्सव दोबारा आयोजित होने लगे हैं। इसे जड़ों की दोबारा तलाश और अपनी साझा संस्कृति की चाह का परिणाम माना जा रहा है जो राजनीतिक पहचानों की अस्थिरता के मुकाबले ज्यादा स्थिर है। यहां तक कि ध्रुवीकरण के मौजूदा हालात में भी आस-पास के बहुत सारे लोग सदियों पुरानी सूफी परंपरा द्वारा पढ़ाए गए सार्वभौमिक प्रेम के पाठ का अनुसरण करते हुए अपने कष्टों को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे हालात में आसिया अंदराबी नाम की एक औरत हमारे सामने आ जाती है। वह दुख्तरे मिल्लत की मुखिया है और नैतिकता की स्वयंभू थानेदार है। उसके नेतृत्व में स्वयंभू नैतिक पुलिसिये अपने किस्म की आचार-संहिता लागू करने के लिए छापामारी कर रहे थे। उन्हें हुड़दंग मचाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और उसके 6 साथियों को भी गिरफ्तार किया गया क्योंकि उन्होंने होटल में बैठी एक महिला को भी नहीं बख्शा जबकि वह अपने पति के साथ बैठी थी। यह सब कुछ एक ऐसी जगह हो रहा था जहां हिंदू सूफी शायरा लाल देद और नंद ऋषि जैसे मुस्लिम संत, दोनों को बराबर इज्जत से पूजा जाता है।

हाल के सालों में सामुदायिक समूहों द्वारा राष्ट्र राज्यों पर हमले बढ़ गए हैं। जहां कहीं भी अहमन्यवादी और अंधराष्ट्रवादी एजेंडा का सत्ता पर कब्जे के लिए राजनीतिक इस्तेमाल किया गया है वहां दूसरे सामुदायिक समूहों के खिलाफ बर्बर हिंसा और दहशत का नंगा नाच हुआ है। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के बहुत सारे इलाकों में सामुदायिक, धार्मिक एवं भाषायी पहचानों पर आधारित कट्टरपंथी आंदोलन मौजूदा राज्यों की एकजुटता को तरह-तरह से चुनौती दे रहे हैं। इन आंदोलनों की मांगें बड़ी अलग-अलग हैं: कुछ सामुदायिक आंदोलन और ज्यादा स्वायत्तता चाहते हैं जबकि कुछ पूरी स्वतंत्रता की मांग कर रहे हैं। बहुत सारे सामुदायिक टकराव और गृह युद्ध दुनिया के सबसे विपन्न इलाकों में हो रहे हैं। इस दशक में वैचारिक आधारों की बजाय सामुदायिक कारणों से ज्यादा युद्ध हुए हैं। 80 के दशक के आखिर और 90 के दशक के शुरुआती सालों में सामुदायिकता पर आधारित नए राज्यों की स्थापना में भारी इजाफा हुआ है। सोवियत संघ और यूगोस्लाविया के विखंडन के बाद 20 नए राज्यों का उदय इसकी एक मिसाल है। यह रुझान भविष्य में भी जारी रहेगा ऐसा दिखाई देता है।

QUICK LINK

Contact Us

INSTITUTE for SOCIAL DEMOCRACY
Flat No. 110, Numberdar House,
62-A, Laxmi Market, Munirka,
New Delhi-110067
Phone : 091-11-26177904
Telefax : 091-11-26177904
E-mail : notowar.isd@gmail.com

How to Reach

Indira Gandhi International Airport (Terminal 2 & 3) - 14 Km.
Domestic Airport (Terminal 1) - 7 Km.
New Delhi Railway Station - 15 Km.
Old Delhi Railway Station - 20 Km.
Hazrat Nizamuddin Railway Station - 15 Km.