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साझी विरासत

पारम्परिक लोक ज्ञान और साझी विरासत

नीलम

मानव विकास की अपनी एक प्रक्रिया रही है। जिसमें उसने धीरे-धीरे अपना विकास अपनी जरूरतों के हिसाब से किया। इसमें शायद उसने सबसे पहले आपस में एक दूसरे के साथ अपने विचारों को बांटने के लिए भाषा का निर्माण किया हो और उसके बाद भी जब उसके जिज्ञासु मन को शांति नहीं हुई तो उसने भाषा को परिमाणित करने के लिए शब्दों को भी निर्मित किया हो। विचारों के आदान-प्रदान के साथ जैसे-जैसे मानव आवश्यकतायें बढ़ती गयी उसने अपने काम को और सुन्दर और सरल बनाने के लिए नई-नई खोंजें की उसने जंगलों से निकलकर कृषि कार्य करना शुरू किया, खेती के कामों में मदद के लिए पशुओं को पालना शुरू किया इससे उसने दो फायदे लिए पहला फायदा दूध जिसका इस्तेमाल उसने खुद के लिए किया और दूसरा फायदा गोबर जिसका इस्तेमाल उसने खेतों में करके कृषि उत्पादन को बढ़ाया।

मानव की इन खोजों का सिलसिला पाषाण युग से आज तक चला आ रहा है। जहां तक मानव ने अपनी जरूरतों के लिए खोज की वहां तक तो वह काफी खुश रहा परन्तु जैसे-जैसे उसके अन्दर ज्यादा इक्टठा करने के विचार आने लगे तथा उसके अन्दर स्वार्थ जैसा एक भाव पनपने लगा, वहीं से शुरूआत हुई लड़ाई झगड़ों, युद्धों की प्रत्येक शक्तिशाली कबीला अपने से कमजोर कबीले पर युद्ध द्वारा अपना पूर्ण अधिकार बना लेता चाहे वह सामाजिक हो या सांस्कृतिक इस तरह से जीते हुए कबीले और हारे हुए दोनों कबीलों की संस्कृति मिलाकर एक नयी संस्कृति बनती रही ।

वैसे भी संस्कृतियों का इतिहास ऐसा ही रहा है। ये हमेशा परिवर्तनशील रही है, ये समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है इसमें बदलाव अवश्यम्भावी है। यदि ये हमेशा एक जैसी बनी रहेगी तो मनुष्य की विकास प्रक्रिया भी रुक जायेगी जैसे एक जगह जमा पानी खराब हो जाता है, उसी प्रकार संस्कृति के ठहराव से उसको लागू करने वाले लोग भी विकास प्रक्रिया की दौड़ से छुट जाते है, प्रत्येक संस्कृति अपने देश काल और परिस्थितियों के हिसाब से काफी अच्छी होती है। जब भी कोई नई संस्कृति उभरती है तो हमेशा पुराने के साथ कुछ नये आयाम जुड़ जाते है। और कुछ नया पैदा होता है।

नये के साथ कुछ नये आयाम जुड़ जाते हैं। और कुछ नया पैदा होता है। परन्तु नये के नाम पर ये नहीं करना है की पुराने या लोगों से जुड़ी संस्कृति को खत्म कर दिया जाये, किसी को खत्म करके नया गढ़ना खत्म होने वाले के साथ सरासर नाइंसाफी है। प्रत्येक देश प्रत्येक जाति का अपना एक लोक ज्ञान होता है।

और इसी के आधार पर वहां की संस्कृति का निर्माण होता है। ये लोक ज्ञान मनुष्यों की जरूरतों से निकलकर आता है इस ज्ञान की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, की इस ज्ञान से लोगों के बीच मतभेद बढ़ते नहीं हैं, बल्कि आपसी प्रेम बढ़ता है। क्योंकि ये ज्ञान जरूरतों से निकलकर आता है, इसलिए इसका ज्ञान उपयोग जरूरतों को पूरा करने के लिए किया जाता है। ना कि इसे बेचने के लिए, इस ज्ञान को सबके हित में बांटा जाता है। इसमें सर्वभूत हितेरतः का समभाव छिपा हुआ रहता है, जहां पर भी मिल बांटकर खाने व रहने का भाव हो वहां कोई भी बुराई कभी पैदा नहीं हो सकती। बुराईयां वहां पैदा होती है। जहां कुछ लोग सिर्फ अपना फायदा देखते हैं। एक दूसरे को देखा देखी ये आग जंगल में लगी आग के समान इतनी तेजी से फैलती है, की इसमें सब कुछ जलने की सम्भावना हो जाती है आदमी का ईमान, दिलों का प्यार, दर्द, इंसानियत, भाईचारा सभी कुछ।

लोक ज्ञान और साझी विरासत दो अलग-अलग नाम तो दिखते है। मगर है एक ही सिक्के के दो पहलू जो अलग-अलग दिखायी देने पर भी एक दूसरे से जुड़ें है, हमने अपनी जरूरतों के लिए जो कुछ भी मिलजुलकर नया ईज़ाद किया चाहे, वह कृषि के क्षेत्र में रहा हो चाहे कला, विज्ञान के क्षेत्र में या खान पान पहनावे के क्षेत्र में सब कुछ हमारा है साझा है, जमीन के टुकड़ों पर लकीरें खींच जाने से अलग देश अलग नाम होने से सब कुछ अलग नहीं हो सकता है, हमारा लोक ज्ञान हमारी संस्कृति हमारी साझी विरासत है, हम सभी के पूर्वजों ने इसको सजाने संवारने में अपना योगदान दिया है।

आज जिसे भारतीयता के नाम से जाना जाता है, वह सब कुछ हमारी परम्परायें, हमारे रीति रिवाज, हमारी संस्कृति सब कुछ साझा है इस संस्कृति को यदि हम विश्लेषित करके देखे तो पायेंगे की इसे परिष्कृत करने में सभी जातियां सभी धर्मों को मानने वाले लोगों का योगदान रहा है।

हमारा लोकज्ञान ही हमारी साझी विरासत का प्रतीक है, साथ ही ये हम सबको जोड़कर रखने वाला एक पुल भी है, सत्ता के भूखे राजनैतिक लोगों की आंखों में हमारी एकता का ये पुल हमेशा खटकता रहता है। क्योंकि राजनीति की रोटियां सेंकने के लिए इससे बढ़िया जगह और कहां हो सकती है। आज के कथित राजनेता कहे जाने वाले लोग सत्ता के लालच में लोगों के दिलों में धर्म के नाम पर नफरत फैलाकर तथा साझी विरासत के बारे में गलत-गलत धारणायें फैलाकर साझी विरासत को तो नष्ट करने का काम कर ही रहें हैं। साथ ही साथ लोक कल्याण जैसी भावना को विकसित होने पर भी रोक लगा रहे है।

आज यदि हम सब समझते हैं, या देर से ही सही समझने लगे है। तो हमारा फर्ज बनता है की हम सब नफ़रत की दीवारों को तोड़कर एक-जुट हों और समझे अपनी साझी विरासत (संस्कृति) के बारे में जो हमारी अक्ष्क्षुण एकता का प्रतीक है। और आज भी इतिहास के रूप में हमें हमारी इस विरासत के बारे में बताता है, और याद दिलाता है उन लोक ज्ञान ‘धारकों’ की जिनके वाहक अब लुप्त होते जा रहे है। हमारी इस इन्द्रधनुषी साझी विरासत (संस्कृति) में आज कुछ और नया जोड़ने की जरूरत है जिससे इसके रंगों की चमक कुछ और बढे़ और पूरी दुनिया इससे संदेश ले सके एकता, भाईचारे, शक्ति सद्भावना और प्रेम का, इसलिए कबीर साहब ने भी अपने दोहों में ढाई आख़र प्रेम का वर्णन इतने गहरे अर्थों में किया है—
पोथि पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय
ढाई आख़र प्रेम का पढ़े सो पंडित होय

यही ढाई आख़र है हमारी साझी विरासत और संस्कृति का दिल, जिगर और ज़ान।

लोक ज्ञान है क्या, जरूरतों से निकला ज्ञान जिसके लिए कोई स्कूल, कॉलेज व विश्वविद्यालय की जरूरत नहीं होती ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक देखकर सुनकर व स्वयं करके पहुंच जाता है। लोक ज्ञान के कई प्रकार है। इसको किसी निश्चित सीमा में नहीं बांध सकते लोक ज्ञान, रहन सहन, स्वास्थ्य, खेती, खानपान, पहनावा कला, संगीत सब कुछ का अपना-अपना लोकज्ञान है। लोकज्ञान का जन्म होता है सबसे सीमान्त व्यक्ति द्वारा क्योंकि जब उच्च वर्ग एक निम्न वर्ग के लिए उन सुविधाओं को मुहैया नहीं कराता जो जीवन जीने के लिए जरूरी है। तब सीमान्त लोग अपनी जिन्दगी को खुशहाल बनाने के लिए नई-नई वस्तुओं का निर्माण करते हैं। उनके द्वारा निर्मित वस्तुओं को बनाने का ज्ञान ही लोक ज्ञान कहलाने लगता है और ये जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के साथ जुड़ जाता है।

कभी-कभी लोकज्ञान से लोग अन्दाज लगाते हैं पिछड़ेपन का पुरानी रीति रिवाज़ों की कट्टरता का परन्तु ये सब इनसे अलग है लेकिन जब कभी लोक ज्ञान अंध विश्वासों के साथ जुड़ जाता है, तो इसका स्वरूप विकृत होने की सम्भावना हो जाती है। लोक ज्ञान ज्यादातर लिखित रूप में संरक्षित नहीं होता है। ये लोगों के दिल और दिमाग में उनकी यादों के सहारे जिंदा रहता है, जो प्रत्येक संस्कृति में लोकगीतों, कहावतों लोक संगीत, लोक कथाओं जीवन से जुडे अन्य पहलुओं में दृष्टिगोचर होता है या यूँ कहें बिखरा रहता है। इसका प्रचार-प्रसार करने का एक ही तरीका है कहकर यानि मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को कथाओं, गाथाओं, गीतों के माध्यम से हस्तान्तरित करना। ये बिना किसी औपचारिकता के हस्तांतरित होता रहता है।

मॉडल लोकज्ञान
हमें यदि अपनी इस लोक ज्ञान की संस्कृति को आने वाली पीढ़ियों के लिए संजोकर रखना है तो हमें इन सबका दस्तावेजीकरण करना बहुत जरूरी है क्योंकि आज के तेज रफ्तार के जमाने में इस ज्ञान के लुप्त होने की संभावना बनी हुई है। यदि हम चाहते है कि ये लोक ज्ञान जो हमारे पूर्वजों की विरासत हमारे लिए है। आने वाली पीढ़ियां भी इसके बारे में जान सकें तो हमें आज व अभी से इसे सहेजकर रखना शुरू करना होगा जिससे हम वैज्ञानिक युग में लोक विज्ञान को भी जिंदा रख सकेंगे क्योंकि सबसे सीमांत व्यक्ति को खुशहाल रखने का यही एक सुगम व सस्ता रास्ता है।

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