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जन संघर्ष

लोकतंत्र बचाओ अभियान
लोकतंत्र क्या है और अभियान क्यों

आई.एस.डी.

लोकतंत्र बचाओ अभियान की शुरुआत के समय से ही हमारे समक्ष कई तरह के प्रश्न खड़े हुए। इनमें से प्रश्न इस प्रकार के मंच के अस्तित्व से संबंधित थे और आज भी बने हुए हैं। इसका मुख्य कारण ये है कि हम लोकतंत्र को केवल राजनैतिक संसदीय प्रणाली के रूप में देखने के आदी हो चुके हैं। इसके विपरीत हमारा मानना है कि लोकतंत्र राजनैतिक प्रक्रिया होने के साथ-साथ सामाजिक व्यवहार का एक अभिन्न हिस्सा है और दिन प्रतिदिन इसका दायरा सिमटता जा रहा है।

आज चारों तरफ से लोकतंत्र पर हमला हो रहा है भूमंडलीकरण, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, सैन्यीकरण, परमाणवीकरण, जातिगत भेदभाव, जेंडरगत भेदभाव जैसे मुद्दे लोकतंत्र के दायरे को संकुचित कर रहे हैं यह विडम्बना है कि पिछले 20 वर्षों में कोई भी जनतांत्रिक आन्दोलन सफल नहीं हुआ है और कोई भी मांग लोकतांत्रिक तरीकों से गुजरकर नहीं मनवाई गयी है। इसके विपरीत हिंसात्मक प्रवृत्तियों का सहारा लेकर अनुचित मांगें तक मनवाई जा रही हैं। मौलाना मसूद अज़हर जैसे खतरनाक आतंकवादी को छुड़वाने के लिए कुछ आतंकवादी हवाई जहाज अगवा कर लेते हैं और मजबूरन सरकार को उसे छोड़ना पड़ता है। लेकिन वहीं दूसरी ओर जनता की भलाई से संबंधित किसी भी मांग को सरकार नहीं मानती है क्योंकि वह लोकतांत्रिक तरीके से मांगी जाती है। इस तरह आज बन्दूक की नोक पर मांग मनवा लेने का फैशन चल पड़ा है।

भूमंडलीकरण जीवन के तमाम सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक क्षेत्रों में घुसपैठ करना चाहता है। जिसके लिए वह खुला व्यापार और खुला बाजार जैसी नीतियों का सहारा लेता है। इसे अपने सबसे बड़े उद्योग यानी कि हथियार उद्योग के लिए बाजार व खरीददार चाहिए जिसके लिए जरूरी है कि सीमाओं के बीच लगातार तनाव चलता रहे क्योंकि सीमाओं पर जितना असंतोष होगा उतना ही बाजार में घुसने की संभावनाएं बढ़ेंगी। यह बाजारी शक्तियों के हक में है कि दो देश आपस में लड़ते रहें जिससे कि राष्ट्रवाद को बल मिले। अपने इस मकसद में कामयाब होने के लिए भूमण्डलीकरण की ताकतें जनता में असुरक्षा की दिग्भ्रमित भावना फैलाकर एक दुश्मन पैदा करती हैं या गढ़ती हैं और फिर जनता को इस डर और असुरक्षा से मुक्ति दिलाने के नाम पर बमबारी करती है और युद्ध छेड़ देती है। जैसा कि इराक और अफगानिस्तान में हुआ। इस तरह से यह ताकतें किसी भी देश के संसाधनों पर कब्जा कर लेती हैं।

अमरीका के नेतृत्व में भूमण्डलीकरण की ताकतों ने 11 सितम्बर के हमले के बाद इस्लाम को अपना दुश्मन घोषित कर रखा है और इस्लाम को आतंकवाद का समानार्थी बना दिया गया है। आज आतंकवाद और इस्लाम को एक दूसरे के पूरक के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। यही वह बिंदु है जहां पर आकर भूमंडलीकरण हिन्दुत्ववादी और तालिबानी ताकतें एकजुट हो जाती हैं। यह एक मिथक प्रचार है कि गुजरात दंगों के बाद वहां की अर्थव्यवस्था चरमराई। सच्चाई यह है कि दंगों के दौरान हुई तबाही ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों की घुसपैठ का रास्ता साफ किया है। इस तरह से निजीकरण की प्रक्रिया तेज होती है और इससे अन्ततः अमेरिका को ही फायदा होता है। यह प्रमाणित करता है कि साम्प्रदायिकता और भूमण्डलीकरण एक दूसरे के हाथ ही मजबूत करते हैं। भूमण्डलीकरण की ताकतें सबसे कीमती प्राकृतिक संसाधन तेल पर अपना कब्जा चाहती है और यह जग जाहिर है कि तेल अरब देशों में प्रचुर मात्रा में मौजूद है जहां पर संयोगवश मुसलमान बहुसंख्या में रहते हैं। अब जाहिर सी बात है कि इन संसाधनों पर कब्जा करने हेतु इस्लाम को दुश्मन तथा मुसलमानों को आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है ताकि दुश्मन के सफाये के नाम पर अपनी पैशाचिक चालों को जायज ठहराया जा सके। इसी तर्ज पर भारत में सांप्रदायिकता के उभार के संदर्भ में आतंकवाद और इस्लाम को दुश्मन तथा मुसलमानों को आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है ताकि दुश्मन के सफाये के नाम पर अपनी पैशाचिक चालों को जायज ठहराया जा सके। इसी तर्ज पर भारत में संाप्रदायिकता के उभार के संदर्भ में आतंकवाद और इस्लाम के इस समानार्थी रिश्ते का हिन्दुत्ववादी ताकतों द्वारा पूरा फायदा उठाया जा रहा है। इसलिए हमें कश्मीर में हो रही आतंकवादी गतिविधियों के बारे में तो मीडिया में खबरें पढ़ने को मिल जाती हैं लेकिन उसके दूसरी ओर उत्तर-पूर्व भारत में सक्रिय आतंकवाद पर हमारी नजर ही नहीं जाती या दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जनता की नजरों में उत्तर-पूर्व में आतंकवाद जितना व्यापक है वह पाकिस्तान, अफगानिस्तान या कश्मीर में हो रही आतंकवादी गतिविधियों से कहीं अधिक है। लेकिन फासीवादी ताकतें आतंकवाद और सांप्रदायिकता को एक ही रूप देखना चाहती हैं। इसलिए समय-समय पर कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद का ढिंढोरा पीटती हैं और मुसलमानों को शैतान के रूप में प्रचारित करती हैं। अक्षरधाम या रघुनाथ मंदिर पर हमला करके आतंकवादी फासीवादी ताकतों के लिए अल्पसंख्यकों को कत्लेआम करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं इस तरह आतंकवाद जितना बढ़ेगा उतना ही साम्प्रदायिकता को बल मिलेगा।

भूमण्डलीकरण की सबसे गहरी मार वंचित समुदायों पर पड़ी है यानि दलित, आदिवासी और महिला। एक ओर तो दलितों से उनकी जमीनें छीन ली गई हैं और दूसरी ओर सांप्रदायिक ताकतें धर्म और संस्कृति के नाम पर उनको निशाना बनाती रहती हैं। एक तरफ उच्च जाति समूह द्वारा उन पर जुल्म ढाये जा रहे हैं तो दूसरी ओर फासीवादी ताकतें अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए इन्हें बतौर मोहरा इस्तेमाल करने से नहीं चूकती हैं जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण हम गुजरात दंगों में देख चुके हैं। भूमंडलीकरण और फासीवादी ताकतों ने महिलाओं की स्थिति बद से बदतर ही की है। सांप्रदायिकता तो अपने आप में जेंडरगत भेदभाव लिये रहती है क्योंकि राष्ट्रवाद पर बोलने के लिए तथाकथित ”पौरुषगुणों“ की आवश्यकता पड़ती है। इसका स्पष्ट उदाहरण हम भारत-पाकिस्तान मुद्दे को उछालते समय देख सकते हैं। उस समय जिस तरह की बयानबाजी दोनों देशों की ओर से होती है। वह जेंडरगत भेदभाव को ही उजागर करती है। जैसे ”हाथों में चूड़ियां पहन लो“, ”परमाणु कार्यक्रम हमारी माँ-बहन के समान है“ इत्यादि।

भूमण्डलीकरण, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, सैन्यीकरण, परमाणवीकरण, जातिगत भेदभाव, जेंडरगत भेदभाव के बीच मौजूद इस संबंध के संदर्भ में जरूरत यह है कि इस तरह की समग्र दृष्टि जनता तक पहुंचायी जाए ताकि वे समझें कि यह पूरी प्र्रक्रिया हमारे देश के सामाजिक ताने-बाने को निशाना बना रही है। आज सांप्रदायिकता का चरित्र पूरी तरह बदल चुका है और इसे अलग करके नहीं देखा जा सकता। आज के भारत के सांप्रदायिकता के सवाल में जूझते समय भूमंडलीकरण, परमाणवीकरण, सैन्यीकरण व आतंकवाद जैसे सवालों की अनदेखी नहीं की जा सकती। सांप्रदायिकता का उद्देश्य है भूमंडलीकरण की ताकतों को गरीबों का शोषण करने में मदद करना है। विकसित देशों का सामान हमारे बाजारों में तभी बिक सकता है जब हमारे बाजारों में सामान बन्द हो जाय और जनता की क्रयशक्ति बढ़ जाय। जनता की क्रयशक्ति तभी बढ़ेगी जब एक समाज दूसरे समाज का धर्म और संस्कृति के नाम पर शोषण करे। एक समाज का दूसरे समाज का शोषण करने के लिए हिंदुत्ववादी ताकतें हर प्रकार के हथकंडे अपना रही हैं। यह कई मोर्चों पर लड़ी जाने वाली लड़ाई है और इसके प्रति रणनीति तथा दृष्टिकोण भी उसी तरह बनाना होगा। लोकतंत्र की हिफाजत के लिए क्या किया जाय इसके लिए आई.एस.डी., नई दिल्ली के पहल पर समान सोच वाली संगठनों व प्रगतिशील लोगों के बीच बातचीत के बाद इस कार्यक्रम की शुरुआत की गयी। इस अभियान का गठन 8 राज्यों के स्वयंसेवी संगठनों ने आपस में चर्चा करके लखनऊ में विधिवत 14 दिसम्बर 2003 को शुरू किया।

11 सितम्बर 2001 को अमेरिका पर हुए हमले ने विश्व की एक समग्र तस्वीर रखने की जरूरत पैदा की है इसलिए इस काम की शुरुआत के लिए हमें कई घटनाओं के अंतर्संबंध और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे दुष्चक्रों के एक हिस्से के रूप में देखना जरूरी हो गया है। चाहे 11 सितम्बर के बाद अफगानिस्तान पर हुई बमबारी हो या इराक में विध्वंसकारी हथियारों की बरामदगी के लिए हुआ युद्ध हो, हम किसी भी घटना को अकेले में नहीं देख सकते। आजाद भारत में हुआ आज तक का सबसे बड़ा सांप्रदायिक दंगा यानी गुजरात जनसंहार, अमेरिका की आतंक के खिलाफ युद्ध की घोषणा, जम्मू-कश्मीर विधानसभा तथा 13 दिसम्बर को भारतीय संसद पर हुये हमले की घटनाओं के बीच संबंध को तलाशना जरूरी है। इन घटनाओं की वजह से भारत-पाक सीमा पर सेनाओं का सैलाब सा आ गया था और युद्ध के आसार नजर आने लगे थे। गौरतलब है कि सितम्बर में हमला अमेरिका पर होता है और तकरीबन 5 महीने तक सेनाओं का जमावड़ा हमारी सीमा पर होता है। इस पूरी प्रक्रिया ने संघ गिरोह को वैधता दी जो हमेशा से अल्पसंख्यकों के सफाये के लिए मौका तलाश कर रहा था और साबरमती एक्सप्रेस पर हुए हमले ने उसे यह मौका दिया।

जनता की मूलभूत जरूरतें सरकारी जिम्मेदारी के तहत पूरी हों, यह लोकतांत्रिक प्रतिक्रिया का हिस्सा है यानि जब सरकार जनता को सहयोग करे और ऐसा ही व्यवहार अब आम जनजीवन में होता है यानि परस्पर सहयोग और मेलजोल, तो लोकतंत्र को और मजबूती मिलती है। यही वजह है कि फासीवादी ताकतें आज तक अपने एजेंडे में पूरी तरह से सफल नहीं हो पायी हैं। फासीवादी ताकतें हमेशा संविधान बदलने और राष्ट्रपति शासन व्यवस्था की मांग करती रही हैं। लेकिन अगर वे आज तक सफल नहीं हो पायी हैं तो उसकी वजह है आम जीवन में सहयोग की भावना। जनता के सहयोग के बिना फासीवाद स्थापित नहीं हो सकता। सदन में सवाल उठा कि जनता के सहयोग के बिना फासीवाद नहीं आ सकता तो फिर गुजरात में दंगे क्यों हुए? इस सवाल के जवाब में बातचीत के दौरान उभरकर आया कि दंगे हमेशा प्रायोजित होते हैं। माहौल ऐसा बनाया जाता है जिससे आम जनता दंगे की सूत्रधार बन जाती है।

हिंदी भाषी क्षेत्र में समान समझ के लोगों ने इस नेटवर्क की शुरुआत की। इस नेटवर्क में अभी तक उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के कुछ साथी व संस्थायें सदस्य के रूप में जुड़ी हैं तथा झारखंड व उत्तराखंड में नेटवर्क को बढ़ाने की बात सोच रहे हैं। उत्तर प्रदेश में नेटवर्क काफी सक्रिय रूप से काम कर रहा है। सूचना के अधिकार को लेकर ‘लोकतंत्र बचाओ अभियान’ के सदस्य उत्तर प्रदेश में काफी काम कर रहे हैं।

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